मुख्य पृष्ठ पर जायें

Monday, 17 February 2025

621. पी कहां- ओमप्रकाश शर्मा जनप्रिय

एक प्रेम कथा
पी कहां- जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा 

पुस्तक प्रेमियों के महाकुंभ 'नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला- 2025' में दो दिवस का भ्रमण हम चार साथियों ने किया और काफी संख्या में पुस्तकें भी लेकर आये । जहाँ मेरा यह तृतीय पुस्तक मेला था वहीं अन्य तीन साथी पहली बार ही आये थे, हालांकि इनमे से एक पुस्तक प्रेमी भी न था ।
गुरप्रीत सिंह, अंकित , सुनील भादू, राजेन्द्र कुमार, ओम सिहाग

पुस्तक समीक्षा से पहले थोड़ी सी बात पुस्तक मेले की । मैं गुरप्रीत सिंह अपने साथी ओम सिहाग (अध्यापक) अंकित (बैंककर्मी) और राजेन्द्र सहारण के साथ दो दिवस तक मेले में रहा । ओम सिहाग को साहित्य पढने में काफी रूचि है, वहीं अंकित को अंग्रेजी प्रेरणादायी पुस्तकें अच्छी लगती हैं और राजेन्द्र को बस साथ घूमना था, और घूमा भी । जहाँ राजेन्द्र और ओम मेरे ही गांव से हैं वहीं अंकित हरियाणा (ऐलनाबाद ) से है। हम चार साथियों के अतिरिक्त मेले में सुनील भादू (हरियाणा) और संदीप जुयाल (दिल्ली) का भी अच्छा साथ रहा ।

  राजस्थान से एक बुर्जग पाठक हैं, उनकी इच्छा पर जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा जी के दो उपन्यास 'पी कहां' और ' मुरझाये फूल फिर खिले' तथा एक उपन्यास कमलेश्वर का 'काली आंधी' लिया था। हालांकि बुजुर्ग महोदय दत्त भारती के अच्छे प्रशंसक हैं लेकिन दत्त भारती जी के इच्छित उपन्यास मेले में नहीं मिले ।

अब बात करते हैं प्रस्तुत उपन्यास 'पी कहां' की ।
कौन जाने पावस ऋतु में 'पी कहां' पुकारने वाले पपीहे की व्यथा क्या होती है।
कौन जाने... और कैसे जाने !
सागर वह जो अपनी गहराई सदा छुपाये रखे। दीपक वह जो जले... तिल तिल जलने पर भी जिसके उर अन्तर में अंधेरा रहे।
अपना अपना भाग्य ही तो है।
पपीहा वह जो पावस में, तब जबकि सूर्य के प्रकाश को दल बादल उमड़-घुमड़ कर अंधकार में बदल दे... पुकारे... 'पी कहां'।
जो सुने वह पपीहे की व्यथा से सहज करुणा से भर-भर जाये।
'पी कहां' कुंवर साहब के जीवन की, जीवन के एक विशेष भाग की कहानी है।
पपीहा कहानी का प्रतीक नहीं है, कहानी की प्रतीक है पपीहे की पुकार...' पी कहां'।
'पी कहां'-प्रियतम को पुकारती हुई एक मार्मिक पुकार। उसे पुकारती हुई करुण ध्वनि जिसे मन सबसे अधिक चाहता हो, प्यार करता हो।
हम सभी जी रहे है, या जिन्दगी के साथ-साथ चल रहे हैं, या घिसट रहे हैं। सभी अपने प्रियतम को पुकार रहे है-'पी कहां'!
प्रियतम वह जो सर्वाधिक प्रिय हो।
और ऐसा बहुत कम होता है कि पुकारने से, प्रयत्न से सवर्वाधिक प्रिय वस्तु हम में से कोई पा ले !
माना कि चाहत का शाब्दिक बोध है-महत्वाकांक्षा। मानव मन का क्या-कितने सपने पूरे हो सकते हैं? कोई बालक खेलने को चांद खिलौना मांगे तो कहां से मिले, कैसे मिले ! प्रेम दीवानी मीरा के लिए वैद्य सांवरिया कहां से आते ! कौन जाने विद्यापति को लखिमा, चण्डीदास को विनोदिनी-निरन्तर सम्बोधन के बाद भी मिली या नहीं!
परन्तु जो चाहत, जो महत्वाकांक्षा तृश्णा नहीं है वह मन को छूती है।
बलिदान में भी तो आनन्द होता है। अगर न होता तो बलिदान शब्द का निमर्माण ही नहीं होता।
'पी कहां' पुकारने वाले पपीहे का दर्द चाहे हम न समझें, परन्तु इस कथा के नायक कुंवर साहब की व्यथा सहज है और मानवीय तो है ही।
जागीरदार वंश के कुंवर साहब के मन का मानव चाहे अपने ऊपर व्यवहार का कैसा भी मुलम्मा चढ़ाए, वह मन से शासक नहीं हैं। मन से, बुद्धि से वह सहज मानव हैं, और कवि हैं।
और अब--!
आगे आइये और इस कथा के नायक से परिचय प्राप्त कीजिये-सामने देखिये...।(प्रथम पृष्ठ से)
यह कहानी है कुंवर साहब की । पहले कुंवर साहब का परिचय पढ लेते हैं ।
कुवर साहब का परिचय।
कद लम्बा, बदन भरा हुआ। यूं उनके पिता राजा साहब कहाते थे परन्तु वास्तव में जागीरदार थे। जागीर मिट गई, परन्तु आदत के अनुसार लोग कुंवर साहब के पिता को राजा साहब कहते रहे और नाम के सूरज प्रकाश कुंवर साहब कहलाते रहे। कुंवर साहब के पिता राजा साहब पिछले वर्ष स्वगर्वासी हुए-परम्परागत राजा साहब की विधवा अब भी रानी साहिबा कहलाती हैं।
थोड़ा और जान लेते हैं।

कुंवर साहब केम्ब्रिज यूनीवर्सिटी लन्दन के स्नातक थे। तीन वर्ष पहले जब छन्दन से लौटे थे तब बाहर से शहर में आते तो कार राह में तीन जगह रुकती थी ।
एक विलायती शराब के विक्रेता के यहां, दूसरे राधा के कोठे के नीचे, तीसरा और अन्तिम पड़ाव गुप्ता जी की दुकान पर। गुप्ता जी थे पुस्तक विक्रेता।
पिछले एक वर्ष से कुंवर साहब ने शराब छोड़ दी थी। विवाह के बाद वह भले नागरिक के रुप में रहना चाहते थे। 

       लेकिन कभी-कभी जो सोचा जाता है वह मनुष्य के अनुसार होता नहीं है। कुंवर साहब ने बहुत सपने देखे लेकिन सभी सच न हो पाये ।
         कुंवर साहब के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है प्रेम । कुंवर साहब प्रेम चाहते हैं, शांति का जीवन चाहते हैं लेकिन...कला प्रिय व्यक्ति कुंवर साहब के जीवन में वह नहीं होता जो कुंवर साहब चाहते हैं । और कुंवर साहब का मानना है कि उसकर जागीरदार बाप-दादा ने जो जनता पर अत्याचार किये थे उसका दण्ड किसी को तो भुगतना ही था,
कुंवर साहब के जीवन में तीन युवतियां आती है । एक राजकुमारी मालविका, दूसरी नृतकी राधा और तृतीय सोना । समय के अनुसार तीनों के साथ कुंवर साहब का प्रेम परवान चढता है और जहां भी उनका प्रेम होता है वही प्रेम उन्हे वास्तविक लगता है। क्योंकि कुंवर साहब कवि हृदय व्यक्ति हैं, सरल और निष्कपट हृदय है।
           और उपन्यास का कथानक इसी विषय पर घूमता है । कुंवर और राजकुंवरी उच्च घराने के हैं और दोनों का रिश्ता भी तय है और दोनों एक दूसरे को पसंद भी करते हैं। वहीं नगत नृतकी राधा का कुंवर साहब से रिश्ता कुछ अलग तरह का है, और सोना...अनाथ सोना से कुंवर साहब का प्रेम बहुत घनिष्ठ है। सोना चाहे उच्च घराने से नहीं, उसे तहजीब नहीं पर राजकुंवर उसे बहुत पसंद करते हैं और दोनों के संबंध शारीरिक भी हो जाते हैं। लेकिन हर प्रेम कुंवर साहब को दर्द ही देता है । और दर्द कविता को जन्म देता है- 

जिन्दगी क्या है, क्या बताऊं मैं, 
एक गूंगे का ख्वाब हो जैसे ! 
या किसी सूदखोर बनिए का,
उलझा उलझा हिसाब हो जैसे !

  अगर दुख है तो दुख का कारण भी है । कुंवर साहब की नजर में दुख कारण देखें-  

बुजुर्गों ने जाने कितनी स्त्रियों को महल में रानी बनाकर रक्खा। कितनी स्त्रियों को दासी बनाया। फिर वेश्याओं की जैसे पूरी फौज पाली। इससे भी बढ़कर बहुत से पाप किये जो स्त्री सुन्दर देखी उसे दिन दहाड़े उठवा कर महल में बुलवा लिया। शास्त्र कहते हैं कि पाप पुण्य का भोग पीढ़ी दर पीढ़ी को भोगना पड़ता है ।

    उपन्यास में प्रेम के स्वरुप को बहुत अच्छे से चित्रित किया गया है। वास्तव में प्रेम क्या है ? क्या वह मात्र शारीरिक है, या फिर प्रेम वह है तो घर परिवार ने तय कर दिया ? या फिर प्रेम वह है जिसे सारा शहर चाहता है ?
        प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं है । प्रेम हो जाना जितना आसान है उसे निभाना उतना ही कठिन है। यहाँ भी कुछ पात्र प्रेम करते है और समय के साथ बदल भी जाते हैं और यही बदलना राजकुंवर को मौत के मुँह की तरफ ले जाता है ।
उपन्यास भावना प्रधान है। उपन्यास पढते वक्त आँखों का नम हो जाना सहज है। अगर आप सामाजिक उपन्यास पढते हैं तो यह उपन्यास आपको अच्छा लगेगा ।
उपन्यास -  पी कहां
लेखक-     ओमप्रकाश शर्मा- जनप्रिय
प्रकाशक-  नीलम जासूस कार्यालय,
पृष्ठ-         136
मूल्य-       150
प्राप्ति लिंक- पी कहां - जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा

सुनील भादू, गुरप्रीत सिंह, सत्यपाल (लेखक),संदीप जुयाल रामपुजारी (लेखक) राजेन्द्र कुमार


1 comment:

  1. वाह। मेरा प्रिय उपन्यास। हालांकि पहली पसंद जासूसी उपन्यास ही हैं लेकिन सामाजिक उपन्यास जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी के हों तो उन्हें पढ़ने से खुद को रोकना मुश्किल है। सफर के साथी, अपने देश का अजनबी भी कई बार पढ़े हैं। ये उपन्यास काफी समय तक मेरे कलेक्शन में था लेकिन फिर शायद गुम हो गया। अभी भाई श्री सौरव द्विवेदी जी के सौजन्य से पुनः मेरे कलेक्शन में आ चुका है। बहुत ही प्यारा उपन्यास है।

    ReplyDelete