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Sunday, 21 April 2019

186. अगिया बेताल- परशुराम शर्मा

 प्रतिशोध की भयानक कथा

       अगिया बेताल एक हाॅरर श्रेणी का उपन्यास है। यह एक ऐसे युवक की कहानी है जो अपने बाप की मौत का बदला लेने के लिए स्वयं निकृष्ट कोटि का इंसान बन जाता है और वह भी उस बाप का बदला जिससे वह युवक जरा सा भी प्रेम नहीं करता था। लेकिन प्रतिशोध मनुष्य को मनुष्य भी नहीं रहने देता।
           परशुराम शर्मा हिन्दी लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के एक वह स्तंभ हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से उपन्यास साहित्य पर अपना गहरा प्रभाव कायम रहा है। जासूसी उपन्यासों के अतिरिक्त परशुराम शर्मा जी ने 'हारर' श्रेणी के भी उपन्यास लिखे हैं।
अगिया बेतान परशुराम शर्मा जी का एक हाॅरर उपन्यास है, जो अगिया बेताल नामक एक प्रेत पर आधारित है। शर्मा जी ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था की उन्होंने एक अगिया बेताल जैसी घटना स्वयं देखी थी।

          उपन्यास का नायक रोहताश एक डाॅक्टर है। वह बचपन से ही अपने चाचा के पास रहता है, क्योंकि उसे अपने पिता के कार्य से घृणा है। रोहताश का पिता 'साधु नाथ' एक तांत्रिक है। साधु नाथ तंत्र-मंत्र द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त करना चाहता है। अपने पिता की मृत्यु पर वह कहता है- एक बुराई का अंत हो चुका था। सवेरे मेरे पिता की चिता शमशान घाट पर लग गई।
           रोहताश को जब अपने पिता के मरने की खबर मिलती है तो वह अपने पिता का अंतिम संस्कार करने गाँव जाता है। रास्ते में उसे अगिया बेताल जैसी घटना के दर्शन होते हैं। गाँव में रोहताश से भी कम उम्र की उसकी सौतेली माँ होती है। लेकिन गाँव में उसके कुछ दुश्मन पहले से ही तैयार बैठे हैं। वहीं रोहतास को पता चलता है की उसकी पिता की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी।- मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पिता की मृत्यु स्वाभाविक मौत नहीं है, उसके पीछे कोई न कोई भेद अवश्य है। न जाने कौन सी बात मस्तिष्क में खटक रही थी।

- रोहताश अपने पिता से इतनी दूरी क्यों बना कर रखता है?
- साधु नाथ की हत्या किसने की?
- क्या था अगिया बेताल?
- रोहताश की सौतेली माँ कौन थी?
- आखिर कैसे डाक्टर रोहताश इन शैतानी ताकतों से टकरा पाया?

              एक तरफ डाॅक्टर रोहताश है जो भूत-प्रेत पर विश्वास नहीं करता तो दूसरी तरफ उसका पिता इन तांत्रिक सिद्धियों के कारण ही जाना जाता था।
एक तरफ डॉक्टर रोहताश है तो दूसरी तरफ गढी (एक जगह, गढ या किला) के लोग है जो तांत्रिक सिद्धियों से गढी की रक्षा करने में यकीन रखते हैं। लेकिन बदली परिस्थितियों में स्वयं रोहताश भी तांत्रिक सिद्धियों का ज्ञाता बन जाता है और वह प्रतिशोध के रास्ते पर निकल पड़ता है। उसकी मददगार बनती है उसकी सौतेली माँ।
रोहताश का एक ही दुश्मन है- ठाकुर प्रताप जिसकी मैंने शक्ल भी नहीं देखी, क्या वह इतनी बड़ी ताकत है कि जिसकी चाहे जिंदगी उजाड़ दे।
मेरे सीने में बगावत थी।
मैं इसका बदला लूंगा।
बदला...।


यही से रोहताश का प्रतिशोध आरम्भ होता है। स्वयं रोहताश भी कहता है।
मेरा प्रतिशोध शुरू हो गया था। अब मैं कातिल था... क़ानून की निगाह में मुजरिम... पर समय कभी लौट कर नहीं आता। मेरे भीतर का मनुष्य तो कभी का मिट चुका था, अब मैं सिर्फ दरिंदा था, जिसके दिल में दया नाम की कोई वस्तु नहीं होती।

              यह उपन्यास प्रथम‌ पुरुष में है। कथानायक रोहताश स्वयं अपनी कहानी बताता है। इसलिए यह सहज ही पता चल जाता है की कथानायक को कुछ नहीं होगा।
प्रथम पुरुष में कथा होने के कारण कुछ प्रसंग जो की रोचक हो सकते थे लेकिन बन नहीं पाये क्योंकि स्वयं नायक चंद शब्दों में बात को समाप्त कर देता है।

           मूलतः देखे तो यह उपन्यास रोहताश पर आधारित है न की अगिया बेताल पर। अगिया बेताल तो रोहताश का सहायक मात्र है और कई कगह पर तो वह स्वयं भी निष्क्रिय है।
उपन्यास की कहानी चाहे बदला प्रधान है लेकिन बदला पूर्ण होने पर भी कथा आगे जारी रहती है। अगर उपन्यास रोहताश के प्रतिशोध तक रहती तो ज्यादा अच्छा रहता क्योंकि बाद में उपन्यास का अंदाज बदल जाता है और वह मात्र रोहताश के जीवन पर आधारित हो जाती है।

उपन्यास के कुछ अंश उपन्यास को वीभत्स बना देते हैं। जैसे रोहताश का अपनी सौतेली माँ के प्रति व्यवहार।

निष्कर्ष-
परशुराम शर्मा जी द्वारा लिखा गया 'अगिया बेताल' नामक उपन्यास एक डरावनी कथा है। यह एक बदला प्रधान कहानी है, कैसे एक युवक तांत्रिक विधियों का जानकार होकर अपने दुश्मनों से प्रतिशोध लेता है।
यह दिलचस्प और पठनीय रचना है जो कहीं भी पाठक को निराश नहीं करेगी।

उपन्यास-  अगिया बेताल
लेखक-     परशुराम शर्मा
प्रकाशक- सूरज पॉकेट बुक्स- मुंबई
मूल्य-
अमेजन लिंक-    अगिया बेताल
परशुराम शर्मा जी का साक्षात्कार-   youtube link interview
परशुराम जी के अन्य उपन्यास - चिनगारियों का नाच
अगिया बेताल- परशुराम शर्मा

।“जब आदमी का उद्देश्य एक ही रह जाता है और उसका जिन्दगी से कोई मोह नहीं रह जाता तो वह खुली किताब की तरह पढ़ा जा सकता
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185. हारा हुआ जुआरी- अनिल सलूजा

यार राघव को बचाने निकला बलराज गोगिया...

          अपने साठ लाख लेकर वह जम्मू जा रहा था। जहां उसका यार राघव था। उसकी प्रेमिका सुनीता थी। (पृष्ठ-08)
         जम्मू तवी एक्सप्रेस ट्रेन में सफर करते वक्त बलराज गोगिया के सामने कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनी की उसे साठ लाख रूपये किसी को देने पड़ गये लेकिन साथ ही उसे दस करोड़ रूपये लूट का आॅफर भी मिल गया।

          अनिल सलूजा जी का एक पात्र है बलराज गोगिया। बलराज गोगिया एक डकैत है,‌ लेकिन ईमानदार भी। बस कुछ परिस्थितियाँ उसे गलत राह पर ले गयी। इस बार भी उसके साथ कुछ ऐसे हालात बने की उसे एक डकैती में शामिल होना पड़ा।

               बलराज गोगिया का मित्र है राघव। राघव की टांग में जहर फैल जाने से डाॅक्टरों ने राघव की टांग काट दी। उस टांग को पुन: जुड़वाने के लिए बलराज गोगिया को रुपयों की आवश्यकता थी।
जैसा की उपन्यास के उपर लिखा है यार की जिंदगी बचाने के अभियान पर निकले बलराज गोगिया का एक और कारनामा.... इससे यह तो स्पष्ट होता है की अपने मित्र राघव के लिए बलराज ने कुछ डकैतियां अवश्य की है। 'हारा हुआ जुआरी' के बाद जो अनिल सलूजा का उपन्यास है उसका शीर्षक है 'राघव की वापसी' अर्थात राघव का इलाज सफल रहा।
             अपने बात कर रहे थे प्रस्तुत उपन्यास 'हारा हुआ जुआरी' की। साठ लाख रुपयों के साथ जम्मूतवी ट्रेन में सफर करते हुए कुछ परिस्थितियों के चलते बलराज गोगिया को वह रुपये करनाल (हरियाणा) में किसी को देने पड़ गये।
                  मनोज, रहीम, संजय और राकेश साहू चार ऐसे पात्र हैं जो एक बैंक की वैन को लूटना चाहते हैं लेकिन यह लूट उनके लिए संभव नहीं। एक योजना के तहत वे चारों बलराज गोगिया को इस लूट में शामिल करते हैं। बलराज गोगिया भी स्वयं के बारे में यही कहता है- मैं‌ तो जमाने का का ठुकराया हुआ एक ऐसा इंसान हूँ- जिसकी जिंदगी उस कुत्ते की तरह है- जिसका कोई वली वारिस नहीं। सुकून की तलाश में भटकता हुआ मैं जब भी किसी जगह आराम करता हूँ तो कोई न कोई मेरी पीठ पर लात मारकर मेरे को किसी न किसी के पीछे लगने को मजबूर कर देता है।(पृष्ठ-264)

- बलराज गोगिया ने साठ लाख रुपये किसे व क्यों दे दिये?
- ट्रेन दुर्घटना क्या थी?
- चारों मित्रों ने बलराज गोगिया को लूट में कैसे शामिल किया?
- क्या बलराज गोगिया बैं‌क की वैन लूट पाया?
-आखिर लूट में कौन सफल रहा?
- क्या हुआ राघव का?


यह उपन्यास पूर्णतः डकैती पर आधारित है। आखिर कैसे एक सुरक्षाबद्ध वैन को बिना किसी हंगामें के लूट लिया जाता है।

उपन्यास के जैसे जैसे आगे बढती है तो कुछ नये किरदार जुड़ते चले जाये हैं। और हर किसी की नजर होती है दस करोड़ की दौलत पर। यह वह दौलत ही क्या जो इतनी आसानी से मिल जाये। 
यही से आरम्भ होता है घात और विश्वासघात का सिलसिला। दस करोड़ जैसी बड़ी रकम पर बहुत से लूटेरे नजर टिकाये बैठ हैं।
अब देखना यह है की इस करोड़ों के खेल में किसे रुपये मिले और किसे मौत।


          बलराज गोगिया चाहे एक डकैत हो लेकिन वह साफ हृदय का इंसान है।‌ उसके विचार ही उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करते हैं। राखी को भी वह कहता है- औरत के लिए मेरे दिल में उतनी ही इज्जत है जितनी एक इज्जतदार आदमी के दिल में होनी चाहिए। (पृष्ठ-81)

वहीं माला भी बलराज गोगिया के चरित्र की प्रशंसा करती हुयी कहती है।- जिसने मेरे से कोई रिश्ता न होने के बावजूद साठ लाख सिर्फ इसलिए मुझे दे दिये कि मेरी गोद सूनी न हो....जबकि वो साठ लाख वो अपने भाई के इलाज के लिए ले जा रहा था। (पृष्ठ-252)

पूरे हिन्दुस्तान के अंडरवर्ल्ड का सबसे बड़ा ऐसा डाॅन....जो सबसे शरीफ डाॅन माना जाता है और सबसे खतरनाक भी माना जाता है।

                      उपन्यास के आरम्भ में यह दिखाया गया है की जम्मूतवी एक्सप्रेस ट्रेन की पटरियों को कुछ बदमाश खोल देते हैं। वहीं बाद में यह पता चलता है की आतंकवादी ट्रेन में विस्फोट कर देते हैं।
उपन्यास में यह कहीं क्लियर ही नहीं होता की ट्रेन की पटरियों को खोलने वाले कौन थे। हालांकि उक्त दोनों दृश्यों का उपन्यास के बाकी अंश से कोई संबंध नहीं है।

- ट्रेन के बाहर से, खिड़की से कोई बलराज गोगिया का साठ लाख रुपयों से भरा बैग उठाने की कोशिश करता है।
- बलराज गोगिया भी ट्रेन की खिड़की से बाहर सिर निकाल कर उसे देखता है।
यह ट्रेन में संभव नहीं है, जब तक की आप आपातकालीन खिड़की के पास नहीं बैठ हों और खिड़की खुली न हो।
बलराज गोगिया जैसा शातिर खिड़की खुली छोड़ दे ये संभव नहीं।

निष्कर्ष-
‌         अनिल सलूजा द्वारा रचित 'हारा हुआ जुआरी' बलराज गोगिया सीरिज का एक डकैती पर आधारित उपन्यास है। यह एक सामान्य कहानी है कहीं कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ती। हां, यह भी है की कहानी कहीं से आपको निराश नहीं होने देगी।
उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।


उपन्यास- हारा हुआ जुआरी
लेखक-   अनिल सलूजा
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स- मेरठ
पृष्ठ- ‌‌‌‌‌        317



#बलराज गोगिया सीरिज
अनिल सलूजा के अन्य उपन्यास
कृष्ण बना कंस- अनिल सलूजा

Wednesday, 17 April 2019

184. कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में- अरविन्द कुमार साहू

कवि फंस गये डकैतों के चंगुल में...
बाल उपन्यास, अरविन्द कुमार साहू


अरविन्द कुमार साहू द्वारा लिखित 'कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में' एक बाल उपन्यास है। यह एक ऐसे कवि की कथा है जो अपनी बेतुकी कविताओं से सभी को परेशान करता है।


उन दिनों डकैतों के मामले में चम्बल घाटी अपने चरम पर थी और बकैतों के मामले में कवि बौड़म अपने चरम पर था
। (पृष्ठ-13)
             एक तरफ कवि की कविताओं से जनता परेशान है और दूसरी तरफ डकैत से। कवि जहाँ सिर्फ रुपये लेना जनाता है तो डाकू सिर्फ रुपये लूटना जानते हैं। एक बार डकैतों से कवि बौडम का अपहरण कर लिया। कवि सिर्फ रुपया लेना जानता था और डकैत कवि से रुपया लूटना चाहते थे।
अब कवि सफल हुआ या डकैत यही उपन्यास का मूल है। यहीं से उपन्यास में रोचकता पैदा होती है। जैसे -जैसे कथा आगे बढती है वैसे -वैसे हास्य रस पैदा होता जाता है और डकैत तथा कवि की हास्य वार्ता भी।

अब देखना यह है की क्या डाकू खूंखार सिंह कवि बौड़म से फिरौती की रकम‌ वसूल पाया और कवि बौडम ने अपनी बेतुकी कविताएँ सुना-सुना कर डाकुओं का क्या हाल किया।

कवि बौड़म की एक कविता भी देख लीजिएगा ।
वह बकैत है, लेकिन चतुर व होशियार है
किसी भी परिस्थिति से निपटने से निपटने को तैयार है।
उसकी कविता ही उसकी उसका हथियार है
जो भी उससे पंगा लेगा, उसका बंटाधार है।

              उपन्यास एक हास्य कथा है लेकिन पढते समय ऐसा कम ही अहसास होता है की यह एक हास्य कथा है। कवि बौड़म की जो हास्य व अटपटी कविताएँ हैं वह भी कोई विशेष प्रभाव नहीं जमा पाती।
उपन्यास पढते वक्त मुझे 'बालहंस' पत्रिका के 'कवि आहत' बहुत याद आये। कवि आहत की कविताओं से लोग इतना परेशान होते थे की वे अपना सिर धुनने लगते थे, पर कवि आहत की तीन-चार पंक्तियों की कविताएँ वास्तव में रोचक होती थी। हालांकि कवि आहत और कवि बौड़म की तुलना मेरा उद्देश्य नहीं है। पर उपन्यास की नीरसता ने कवि आहत की याद दिला दी।
                आरम्भिक पृष्ठों से तो ऐसा लगता है जैसे उपन्यास को अनावश्यक विस्तार दिया गया हो। उपन्यास आरम्भ में सामान्य सी बातों को ज्यादा विस्तार देकर उपन्यास के पृष्ठ बढाने जैसी कोशिश लगती है।
यह एक बाल उपन्यास है तो हो सकता है बाल पाठकों को रूचिकर लगे। लेकिन अनावश्यक विस्तार वहाँ भी खटकेगा।

उपन्यास पात्र-
कवि बौड़म- उपन्यास नायक, एक कवि।
खूंखार सिंह- एक खतरनाक डाकू
जोहार सिंह- खूंखार सिंह का मुख्य साथी
सेंघमरवा- एक डाकू
चोरवा - एक डाकू

निष्कर्ष-
           यह एक बाल उपन्यास है। एक हास्य कवि कैसे डकैतों के चंगुल से स्वयं को आजाद करवाता है। दोनों के मध्य उत्पन्न हास्य पाठक को कुछ हद तक प्रभावित करता है।
बच्चों के लिए एक बार पठनीय रचना है।

उपन्यास- कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में
लेखक-  अरविन्द कुमार साहू
प्रकाशक- सूरज पॉकेट बुक्स
पृष्ठ-
मूल्य- 80₹


183. एक करोड़ का जूता- सुरेन्द्र मोहन पाठक

किस्सा एक करोड़ के जूते का।
एक करोड़ का जूता- सुरेन्द्र मोहन पाठक

        सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के थ्रिलर उपन्यास मेरी विशेष पसंद हैं। यह उपन्यास तो अपने नाम से ही बहुत रोचक है।
एक बार उपन्यास के बारे में चर्चा कर लेते हैं। प्रस्तुत कथन इतना प्रभावशाली है की पाठक उपन्यास पढे बिना नहीं रह सकता।
"सत्तरह साल से, हर साल, बिना नागा आपको जन्म दिन पर दो हजार रूपये का मनीआॅर्डर हासिल हो रहा है?"
"जी हाँ"
"अपने पिता की तरफ से?"
"जी हाँ"
"अपने उस पिता की तरफ से जो की सत्तरह साल से गायब है?"
"जी हां।"
"ऐसा पहला मनी आॅर्डर आपको कब हासिल हुआ?"
"दस नवम्बर 1967 को। मेरी ग्यारहवीं वर्षगांठ पर। मेरे डैडी के गायब होने के बाद वह मेरी पहली वर्षगांठ थी।" (पृष्ठ-06-07)

       उक्त संवाद सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यास 'एक करोड़ का जूता' से हैं। उपन्यास की कहानी एक ऐसे शख्स की है जो सत्तरह साल से गायब है लेकिन उसके एकमात्र वारिस उसके पुत्र के जन्मदिन गायब बाप की तरफ से एक मनीआॅर्डर अवश्य आता है।