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Sunday, 21 April 2019

185. हारा हुआ जुआरी- अनिल सलूजा

यार राघव को बचाने निकला बलराज गोगिया...

          अपने साठ लाख लेकर वह जम्मू जा रहा था। जहां उसका यार राघव था। उसकी प्रेमिका सुनीता थी। (पृष्ठ-08)
         जम्मू तवी एक्सप्रेस ट्रेन में सफर करते वक्त बलराज गोगिया के सामने कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनी की उसे साठ लाख रूपये किसी को देने पड़ गये लेकिन साथ ही उसे दस करोड़ रूपये लूट का आॅफर भी मिल गया।

          अनिल सलूजा जी का एक पात्र है बलराज गोगिया। बलराज गोगिया एक डकैत है,‌ लेकिन ईमानदार भी। बस कुछ परिस्थितियाँ उसे गलत राह पर ले गयी। इस बार भी उसके साथ कुछ ऐसे हालात बने की उसे एक डकैती में शामिल होना पड़ा।

               बलराज गोगिया का मित्र है राघव। राघव की टांग में जहर फैल जाने से डाॅक्टरों ने राघव की टांग काट दी। उस टांग को पुन: जुड़वाने के लिए बलराज गोगिया को रुपयों की आवश्यकता थी।
जैसा की उपन्यास के उपर लिखा है यार की जिंदगी बचाने के अभियान पर निकले बलराज गोगिया का एक और कारनामा.... इससे यह तो स्पष्ट होता है की अपने मित्र राघव के लिए बलराज ने कुछ डकैतियां अवश्य की है। 'हारा हुआ जुआरी' के बाद जो अनिल सलूजा का उपन्यास है उसका शीर्षक है 'राघव की वापसी' अर्थात राघव का इलाज सफल रहा।
             अपने बात कर रहे थे प्रस्तुत उपन्यास 'हारा हुआ जुआरी' की। साठ लाख रुपयों के साथ जम्मूतवी ट्रेन में सफर करते हुए कुछ परिस्थितियों के चलते बलराज गोगिया को वह रुपये करनाल (हरियाणा) में किसी को देने पड़ गये।
                  मनोज, रहीम, संजय और राकेश साहू चार ऐसे पात्र हैं जो एक बैंक की वैन को लूटना चाहते हैं लेकिन यह लूट उनके लिए संभव नहीं। एक योजना के तहत वे चारों बलराज गोगिया को इस लूट में शामिल करते हैं। बलराज गोगिया भी स्वयं के बारे में यही कहता है- मैं‌ तो जमाने का का ठुकराया हुआ एक ऐसा इंसान हूँ- जिसकी जिंदगी उस कुत्ते की तरह है- जिसका कोई वली वारिस नहीं। सुकून की तलाश में भटकता हुआ मैं जब भी किसी जगह आराम करता हूँ तो कोई न कोई मेरी पीठ पर लात मारकर मेरे को किसी न किसी के पीछे लगने को मजबूर कर देता है।(पृष्ठ-264)

- बलराज गोगिया ने साठ लाख रुपये किसे व क्यों दे दिये?
- ट्रेन दुर्घटना क्या थी?
- चारों मित्रों ने बलराज गोगिया को लूट में कैसे शामिल किया?
- क्या बलराज गोगिया बैं‌क की वैन लूट पाया?
-आखिर लूट में कौन सफल रहा?
- क्या हुआ राघव का?


यह उपन्यास पूर्णतः डकैती पर आधारित है। आखिर कैसे एक सुरक्षाबद्ध वैन को बिना किसी हंगामें के लूट लिया जाता है।

उपन्यास के जैसे जैसे आगे बढती है तो कुछ नये किरदार जुड़ते चले जाये हैं। और हर किसी की नजर होती है दस करोड़ की दौलत पर। यह वह दौलत ही क्या जो इतनी आसानी से मिल जाये। 
यही से आरम्भ होता है घात और विश्वासघात का सिलसिला। दस करोड़ जैसी बड़ी रकम पर बहुत से लूटेरे नजर टिकाये बैठ हैं।
अब देखना यह है की इस करोड़ों के खेल में किसे रुपये मिले और किसे मौत।


          बलराज गोगिया चाहे एक डकैत हो लेकिन वह साफ हृदय का इंसान है।‌ उसके विचार ही उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करते हैं। राखी को भी वह कहता है- औरत के लिए मेरे दिल में उतनी ही इज्जत है जितनी एक इज्जतदार आदमी के दिल में होनी चाहिए। (पृष्ठ-81)

वहीं माला भी बलराज गोगिया के चरित्र की प्रशंसा करती हुयी कहती है।- जिसने मेरे से कोई रिश्ता न होने के बावजूद साठ लाख सिर्फ इसलिए मुझे दे दिये कि मेरी गोद सूनी न हो....जबकि वो साठ लाख वो अपने भाई के इलाज के लिए ले जा रहा था। (पृष्ठ-252)

पूरे हिन्दुस्तान के अंडरवर्ल्ड का सबसे बड़ा ऐसा डाॅन....जो सबसे शरीफ डाॅन माना जाता है और सबसे खतरनाक भी माना जाता है।

                      उपन्यास के आरम्भ में यह दिखाया गया है की जम्मूतवी एक्सप्रेस ट्रेन की पटरियों को कुछ बदमाश खोल देते हैं। वहीं बाद में यह पता चलता है की आतंकवादी ट्रेन में विस्फोट कर देते हैं।
उपन्यास में यह कहीं क्लियर ही नहीं होता की ट्रेन की पटरियों को खोलने वाले कौन थे। हालांकि उक्त दोनों दृश्यों का उपन्यास के बाकी अंश से कोई संबंध नहीं है।

- ट्रेन के बाहर से, खिड़की से कोई बलराज गोगिया का साठ लाख रुपयों से भरा बैग उठाने की कोशिश करता है।
- बलराज गोगिया भी ट्रेन की खिड़की से बाहर सिर निकाल कर उसे देखता है।
यह ट्रेन में संभव नहीं है, जब तक की आप आपातकालीन खिड़की के पास नहीं बैठ हों और खिड़की खुली न हो।
बलराज गोगिया जैसा शातिर खिड़की खुली छोड़ दे ये संभव नहीं।

निष्कर्ष-
‌         अनिल सलूजा द्वारा रचित 'हारा हुआ जुआरी' बलराज गोगिया सीरिज का एक डकैती पर आधारित उपन्यास है। यह एक सामान्य कहानी है कहीं कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ती। हां, यह भी है की कहानी कहीं से आपको निराश नहीं होने देगी।
उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।


उपन्यास- हारा हुआ जुआरी
लेखक-   अनिल सलूजा
प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स- मेरठ
पृष्ठ- ‌‌‌‌‌        317



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