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Thursday, 28 February 2019

175. महाभोज- मनु भण्डारी

लाश पर राजनीति...
महाभोज- मनु भण्डारी, उपन्यास

      मनु भण्डारी कृत 'महाभोज' उपन्यास भारतीय राजनीति पर आधारित एक यथार्थवादी रचना है। उपन्यास इतना खुरदरा है की उसका कथ्य पाठक को बुरी तरह से उस खुरदरेपन का अहसास करवाता है।
                 हमारी राजनीति किस स्तर तक गिरी हुयी है इसका जीवंत उदाहरण है यह उपन्यास।  
                   अगर आपको जीना है तो आप खामोश जिंदगी जी लीजिएगा, आँख, कान और मुँह बंद करके जी सकते हैं। अगर आप खामोश जिंदगी नहीं जी सकते तो आपका हश्र भी वही होगा जो बिसू उर्फ बिसेसर का हुआ।
                      बिसू सरोहा गाँव का एक शिक्षित जवान था। वह अन्याय और अत्याचार का विरोधी था और एक दिन....उसकी लाश सड़क के किनारे पुलिस को पड़ी मिली, शायद इसीलिए लावारिस लाश का ख़याल आ गया। वरना उसके तो माँ भी है, बाप भी। ग़रीब भले ही हों, पर हैं तो। विश्वास नहीं होता था कि वह मरा हुआ पड़ा है। लगता था जैसे चलते-चलते थक गया हो और आराम करने के लिए लेट गया हो। मरे आदमी और सोए आदमी में अंतर ही कितना होता है भला! बस, एक साँस की डोरी! वह टूटी और आदमी गया।
                         उपन्यास का आरम्भ यही से होता है। सरोहा गांव से होता हुआ शहर/मुख्यमन्त्री की राजनीति तक पहुंच जाता है।
                           इसी गांव की एक सीट पर उपचुनाव होना था। राजनेताओं को समय मिल गया बिसू की लाश पर राजनीति करने का।
                           उपन्यास में मुख्यतः दो नेता सामने आते हैं‌। दोनों का चरित्र अलग-अलग है। एक जहाँ शांति की बात करता है तो दूसरा उग्र विचारों का है। लेकिन खतरनाक कौन है यह कहना बहुत मुश्किल है। एक तरफ सुकूल बाबू है तो दूसरी तरफ दा साहब हैं। दोनों के राजनैतिक हित हैं जिसकी भेंट गांव वाले चढते हैं।
                           ऐसा नहीं है की सभी लोग गलत हों कुछ अच्छे भी होते हैं लेकिन निकृष्ट राजनेता और नौकरशाही अच्छे लोगों को अच्छा काम करने भी नहीं देती।
                           कभी सिरोहा गांव के लोगों के घर जला दिये गये, लेकिन न्याय न मिला‌। एक बिसू ही था जो न्याय के लिए संघर्ष करता था एक दिन वह भी शैतानवर्ग की भेंट चढ गया। बिसू के लिए उसका दोस्त बिंदा, उसके संघर्ष को आगे बढाने का प्रयास करता है, सक्सेना जैसे अच्छे पुलिस वाले भी हैं जो बिंदा का साथ देते हैं।
      राजनेताओं के लिए गांव का भी तभी तक महत्व है जब तक चुनाव नहीं हो जाते। न तो इससे पहले इंसाफ मिला और न अब न्याय की उम्मीद है। न्याय के लिए संघर्ष करने वाला तो रहा नहीं, अगर कुछ रहा है तो बेबस गांव वालों की सिसकिया और नेताओं के झूठे आश्वासन।
                            उपन्यास में जो घटनाक्रम है वह एक गांव और शहर के अंदर तक सीमित है लेकिन वह सारे भारत के भ्रष्ट शासन को रेखांकित करता नजर आता है। सिर्फ अपनी सत्ता के लिए लोग किसी को जान से मरवाने में भी परहेज नहीं करते, उनके लिए पुलिस और नौकरशाही तो घर की बात है।
                            'महाभोज' उपन्यास पढते वक्त पाठक एक ऐसे घटनाक्रम में चला जाता है जो इतना संवेदनशील, जहाँ पाठक भ्रष्ट प्रशासन और राजनीति को देखकर दहल उठता है। 
                         
निष्कर्ष-
             प्रस्तुत उपन्यास भारतीय राजनीति का वह काला चेहरा दिखाता है जो बहुत भी भयावह है। हमारे राजनेता किस स्तर तक गिर सकते हैं। यह इस उपन्यास में दर्शाया गया है।‌ 
   यह उपन्यास साहित्य की अनमोल धरोहर है। इसे अवश्य पढें ।

उपन्यास-  महाभोज
लेखिका-  मन्नू भण्डारी
प्रकाशक- राधाकृष्ण पैपरबैक्स
                     

Tuesday, 26 February 2019

174. विश्वास की हत्या- सुरेन्द्र मोहन पाठक

 जब हुयी विश्वास की हत्या
 थ्रिलर उपन्यास, लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक

  वे तीन दोस्त थे, वक्त की मार से तीनो ही बेरोजगार थे। एक दिन उन्होंने एक निर्णय लिया, एक लूट का। यह स्वयं से वादा भी किया की यह लूट उनकी जिंदगी की पहली और आखिर लूट होगी।
यह अपराध भी सब के सामने आ गया। लेकिन यह काम किया किसने। तभी तो सभी एक दूसरे से पूछते हैं। “तुमने कोई ऐसी हरकत तो नहीं की जिसे विश्‍वास की हत्या का दर्जा दिया जा सकता हो?”
           जगदीप कभी अमेरिकन अम्बेसी में ड्राइवर हुआ करता था, वर्तमान में बेरोजगार है। सूरज एक असफल पहलवान था। गुलशन घर से फिल्मी हीरो बनने निकल लेकिन असफल होकर वापस लौट आया। संयोग से तीनों बेरोजगार हैं, आर्थिक मंदी से जूझ रहे हैं।
तीनों एक ऐसे अपराध में फंस जाते हैं, जहां उन्हें लगता की वे कभी पकड़े नहीं जायेंगे। पर अपराध छिपा नहीं रहता। लेकिन अपराधी कानून से दूर भागने की कोशिश करता है। यही कोशिश इस उपन्यास के तीनों पात्र करते हैं, लेकिन होता वहीं है जो 'राम रचि राखा'।
उपन्यास में एक तरफ इन तीनों के पीछे पुलिस है तो दूसरी तरफ कुछ खतरनाक गुण्डे भी इनके पीछे लगे हैं। क्या तीनों दोस्त अपनी जान बचाने में सफल हो पाते हैं? यह पढना दिलचस्प होगा।

             ‌‌यह पाठक जी का एक थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की कहानी की बात करें तो इसका आरम्भ चाहे एक घटना से होता है लेकिन आगे कहानी पूर्ण विस्तार ले लेती है। हम यूं कह सकते हैं एक रास्ता है और उस रास्ते से छोटे-छोटे अनेक रास्ते निकलते हैं। यही इस कहानी में होता है। उपन्यास का आरम्भ एक घटना से होता है और फिर छोटी-छोटी कई घटनाएं मिलकर एक बड़ी कहानी का रूप ले लेती हैं।
प्रत्येक पात्र की स्वयं की एक अलग अलग कहानी है और प्रत्येक कहानी में कोई न कोई 'विश्वास की हत्या' करता नजर आता है।
इस उपन्यास की जो मुझे विशेषता अच्छी लगी वह है उसके पात्रों का स्वतंत्र होना। सभी पात्र स्वतंत्र है, कहीं से भी नहीं लगता की लेखक इन पात्रों को अपने अनुसार चला रहा है।

        उपन्यास में मुझे एक दो जगह कुछ कमियां खटकी।
“रिपोर्ट कहती है”—फिर उसने अपने साथियों को बताया—“कि मोहिनी के नाखूनों के नीचे से बरामद खून के सूखे कण तथा दारा का खून एक ही ब्लड ग्रुप का है।”
    यह पता नहीं उपन्यास में कैसे संभव हो गया।
उपन्यास का एक और पात्र है जो अपने सीने पर खरोच के निशान बनाता है और किसी के चेहरे पर खरोच के निशान करता है ताकी वह किसी को फंसा सके, पर यह संभव नहीं है।
ऐसी बड़ी-बड़ी गलतियाँ पता नहीं कैसे रह गयी उपन्यास में।
इन कमियों के अलावा उपन्यास में सब कुछ रोचक है।

निष्कर्ष-
             यह एक रोचक मर्डर मिस्ट्री थ्रिलर है। यह मात्र मर्डर मिस्ट्री ही नहीं है, इसमें जो रोमांच है वह गजब है। कहानी कहां कब कैसे करवट लेती है यह पढना दिलचस्प है। आदि से अंत तक एक रोचक उपन्यास है।


उपन्यास- विश्वास की हत्या
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशक-


173. लम्हें जिंदगी के- अशोक जोरासिया

     कवि अशोक जोरासिया जी का कविता संग्रह पढने को मिला। इस कविता संग्रह में विभिन्न विषयों पर अलग-अलग कविताएँ उपस्थित हैं।
कविता संग्रह 'लम्हें जिंदगी के...' जिंदगी के विभिन्न रंगों से पाठक का परिचय करवाता नजर आता है।


मेरे बचपन के गलियारे में बचपन के बालपन‌ को समेटा गया है।
वहीं गांव की चौपाल में गांव की अनेक विशेषताओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं की
मेरे गांव की एक और पहचान
अतिथियों को समझते
अपना भगवान।
(पृष्ठ- 18,19)
       अगर गांव का जिक्र चला है तो 'मजदूर और किसान' का वर्णन भी अवश्य होगा। बिना मजदूर और किसान के गांव भी तो नहीं। मजदूर और किसान वर्ग की पीड़ा का वर्णन भी मिलता है।
बचाना होगा इनका जीवन
बुलंद करना है फिर से
जय जवान, जय किसा‌न
। (पृष्ठ-26)
         मजदूर वर्ग की पीड़ा का वर्णन 'गगनचुंबी इमारत' कविता में भी मिलता है। वह मजदूर जो गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण करता है लेकिन स्वयं उसके पास रहने को घर नहीं है।
यह कविता शोणक- शोषित का प्रभावशाली चित्रण करती नजर आती है। जो मजदूर इमारतों का निर्माण करता है लेकिन स्वयं उसे उन जगहों पर आश्रय नहीं मिलता।
मगर जगह नहीं मिलती
रहने को इन‌ मजदूर श्रमिकों को
इन‌ महानगरों की काॅलोनियों में।
(पृष्ठ-28)

कविता 'जीवन एक अग्निपथ' में कवि हौंसले को बुलंद कर मंजिलों को प्राप्त करने का संदेश देता है।
"पथ है, पथिक हो तुम
मंजिल लंबी, राहें है‌ नई,
उमंग जोश है नया,
सवेरा है नया चलना है तुमको
जीवन अग्निपथ....।
(पृष्ठ-24)
यह कविता बहुत अच्छी और प्रेणादायक कविता है।


क्या कविता लिखना सरल है। नहीं यह एक श्रमसाध्य काम है। इस बात को कवि ने महसूस किया और अपने शब्दों में एक कवि के भाव व्यक्त किये हैं।
यूं ही नहीं लिखी
जाती नज्म
शब्दों को बांधना
पड़ता है दिल में
श्रृंगार की तरह
अलंकृत करनी पड़ती है,
अल्फाजों की देह।
(पृष्ठ-29)
तब जाकर कहीं एक कविता का सृजन होता है।

जीवन को परिभाषित करती एक कविता है 'जिंदगी महफिल है'। यह वास्तविकता है की जिंदगी एक महफिल की तरह है बस उसे जिने का ढंग आना चाहिए। यही ढंग इस कविता में दर्शाया गया है।
         ये भी माना हमने
        आसां‌ नहीं जिंदगी जीना
        जीना भी एक कला है
        कलाकार फिर बन जाया करो।
(पृष्ठ-37)

         एक प्रगतिशील कविता है 'पुनर्जागरण' जो परम्परागत रूढियों को तोडकर आगे बढने की प्रेरणा देती है। तो कविता 'युवावस्था' भी हमें एक संदेश देती है कि 'जीतने के लिए संघर्ष करना ही युवावस्था है...।' (पृष्ठ-50)


        प्रकृति से संबंधित कई कविताएँ इस संग्रह में मिल जायेंगी पर इस संग्रह की अंतिम कविता 'पेड़ की व्यथा' एक यथार्थवादी कविता है। जो हमारे पर्यावरण को रेखांकित करती एक सार्थक रचना है।

झेलता रहा हूँ आंधियों को
तूफानों से निपटने के लिए
जड़ों पर खड़ा होकर
टहनियों से आच्छादित
मैं एक दरख्त हूँ।
(पृष्ठ-94)

प्रस्तुत कविता संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यही है की इसमें विषय की विविधता है। जिन‌ विषयों पर लगता है लिखा नहीं जा सकता, या लिखना मुश्किल है ऐसे विषय पर कवि महोदय ने जो लिखा है वह काबिल ए तारीफ है।

नारी है, युवा है प्रकृति है देश है, रोटी है, सावन है रिश्ता है
'1962' का युद्ध है, 'कुली' है, 'साइबर शहरों‌ की दुनिया' तो कहीं 'बैंडिट क्वीन फूलन देवी' पर भी कविता है। कवि की दृष्टि से कोई विषय अछूता नहीं रहा।

इस कविता संग्रह में जो मुझे कमी महसूस हुयी वह है कविता में लय का न होना, इस वजह से अधिकांश कविताएँ पद्य की बजाय गद्य के ज्यादा नजदीक हो गयी हैं।
एक अच्छे कविता संग्रह के लिए कवि महोदय को धन्यवाद।

कविता संग्रह- लम्हें जिंदगी के
कवि- अशोक जोरासिया
प्रकाशक- प्रभात पोस्ट पब्लिशर्स
पृष्ठ- 94
मूल्य- 150₹
'भीम‌ प्रज्ञा' साप्ताहिक पत्र (08.04.2019) में‌ प्रकाशित समीक्षा


Saturday, 23 February 2019

172. जेल डायरी - शेर सिंह राणा

 एक शेर की साहसिक यात्रा।
जेल डायरी- शेरसिंह राणा
             शेर सिंह राणा का नाम सुनते ही दो तस्वीरें सामने आती हैं।   क्या आपने शेर सिंह राणा का नाम सुना है, अगर सुना है तो आपके दिमाग में एक सकारात्मक  तस्वीर उभरी होगी और साथ ही एक नकारात्मक तस्वीर भी। एक सिक्के के दो पक्ष की तरह शेर सिंह राणा का जीवन। जहां एक पक्ष पर सारे देश को गर्व है तो द्वितीय पक्ष पर रोष भी।
     लेकिन शेर सिंह राणा के बारे में एक बात तय है वह है आदमी बहादुर है। ऐसा बहादुर जो शेर की गुफा में जाकर शेर के दाँत तोड़ने की क्षमता रखता है। 
विश्व पुस्तक मेला- नई दिल्ली, 2018
     ‌पहली बार जब यह पता लगा की शेर सिंह राणा ने अपनी आत्मकथा लिखी है तब से मेरे मन में इस किताब को पढने की अदम्य इच्छा बलवती हो उठी। आत्मकथा का शीर्षक और शेर सिंह राणा को कारनामा ही इस किताब को पढने के लिए प्रेरित करता है।

          भारत के महान राजा पृथ्वी राज चौहान और मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी के मध्य हुये तराईन के युद्ध (सन् 1191 और 1192 ई.) को सभी ने पढा ही होगा। प्रथम युद्ध में हारने के बाद गौरी ने द्वितीय युद्ध में कुटिल नीति से युद्ध जीता और पृथ्वी राज चौहान को बंदी बना कर अपने देश गजनी ले गया।  पृथ्वी राज चौहान के एक परममित्र और कवि चंदबरदाई थे। चंदबरदाई ने  'पृथ्वी राज रासो' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की है। यह वीर रस का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है।
                        गौरी ने गजनी ले जाकर पृथ्वी राज चौहान को बंदी बना लिया और चौहान की आँखे खत्म कर दी। पृथ्वी राज चौहान की एक विशेषता थी 'शब्दभेदी' बाण चलाने की। इसी विशेषता के चलते एक 'पद्य' के माध्यम से चंदबराई ने पृथ्वी राज चौहान को गजनी की स्थिति बता दी।
     चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण
       ता उपर सुल्तान है,मत चूको चौहान।।
                        चंदबराई के इस संकेत से पृथ्वी राज चौहान ने शब्द भेदी बाण से गौरी को खत्म कर दिया। दोनों मित्रों ने वहीं पर अपनी जीवन लीला भी समाप्त कर ली।
                        गजनी में इन‌ तीनों की समाधी है। गजनी में पृथ्वी राज चौहान‌ की समाधी को अपमानित किया जाता है। बस यही बात शेर सिंह राणा के मन में थी की इस समाधी को भारत लाना है और इस बहादुर व्यक्तित्व ने इस महान कार्य के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी।
                        एक केस के सिलसिले में शेर सिंह राणा को तिहाड़ जेल जाना पड़ा। लेकिन दिल में एक आग सुलग रही थी। वह आग थी पृथ्वी राज चौहान की अस्थियों को भारत लाने की।
                         यह आत्मकथा तिहाड़ से ही आरम्भ होती है।  तिहाड़ से होते हुए बांग्लादेश और वहाँ से काबुल, कांधार तक घूमती है। 

Thursday, 14 February 2019

171. क्रिस्टल लाॅज- सुरेन्द्र मोहन पाठक

 एक कोर्ट रूम कहानी
क्रिस्टल लाॅज- सुरेन्द्र मोहन पाठक, उपन्यास, मर्डर मिस्ट्री, कोर्ट रूम ड्रामा।

               मुकेश माथुर एक एक वकील था जो 'आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स' नामक एक लाॅ फर्म में काम करता था, जहाँ उसकी हैसियत नाममात्र की थी। परिस्थितिवश वह अपनी फर्म के खिलाफ काम कर बैठा, जो की वकील की दृष्टि में उचित था लेकिम फर्म की दृष्टि में नहीं। मुकेश माथुर उस फर्म से बाहर हो गया।


सत्य का साथी मुकेश माथुर एक बात का पक्ष धर है।-
सूर्य छिपे अदरी बदरी अरु चन्द्र छिपे जो अमावस आये,
पानि की बून्द पतंग छिपे अरु मीन छिपे इच्छाजल पाये;
भोर भये तब चोर छिपे अरु मोर छिपे ऋतु सावन आये,
कोटि प्रयास करे किन कोय कि सत्य का दीप बुझे न बुझाये।


                   राजपुरिया एस्टेट के मालिक अभय सिंह राजपुरिया एक बड़ा, खानदानी आदमी था। उधर इलाके में बड़ी इज्जत, बड़ा रौब, बड़ा दबदबा बताया जाता था उसका। काफी उम्रदराज...68 साल का था। एक दिन अपने घर में, बैडरूम में...जीटाफ्लैक्स नामक दवाई के ओवरडाॅज से मरे पाये गये।

‘‘कैसे मर गया, मालूम?’’
‘‘कहते हैं दिल की अलामत की कोई दवा रेगुलर खाता था, उसके ओवरडोज से मरा।’’
‘‘ठीक कहते हैं। दवा का नाम जीटाप्लैक्स है, पिछले दस साल से खा रहा था। ओवरडोज कैसे हो गया?’’
इन्स्पेक्टर ने कुछ क्षण उस बात पर विचार किया फिर इन्कार में सिर हिलाया।
‘‘तो?’’ — एसीपी बोला।
‘‘तो...खुदकुशी, सर!’’
‘‘यानी जिस दवा की एक गोली खानी थी, उसकी ढेर खा लीं!’’
‘‘ज-जी ... जी हां।’’
‘‘प्लान करके सुइसाइड की!’’
‘‘सर, आप कहते हैं तो...’’
‘‘मैं नहीं कहता। मैं पूछता हूं। तुम क्या कहते हो?’’
‘‘सर, हो तो सकता है!’’
‘‘पीछे कोई सुइसाइड नोट क्यों न छोड़ा?’’
‘‘नहीं छोड़ा!’’
‘‘मौकायवारदात से कोई सुइसाइड नोट बरामद नहीं हुआ था।’’
‘‘ओह!’’


इसी केस को लेकर मुकेश माथुर और 'आनंद एसोसिएट' आमने -सामने आ जाती हैं।

- अभय सिंह राजपुरिया की मौत क्या स्वाभाविक थी?
- क्या अभयसिंह ने आत्महत्या की?
- क्या अभय सिंह को किसी ने मारा?
- मुकेश माथुर और आनंद एसोसिएट का संघर्ष क्या रंग लाया?

           यह उपन्यास पूर्णतः कोर्ट और वकील वर्ग की बहस पर आधारित है। मुख्य किरदार मुकेश माथुर है जो अभी नये वकील है। दूसरी तरफ एक बड़ी संस्थान है। दोनों के बीच मुकाबला पठनीय है।
हालांकि उपन्यास में ज्यादा घुमाव नहीं है। उपन्यास एक मर्डर पर आधारित है। उपन्यास का अंत अवश्य कुछ टविस्ट लाता नहीं तो बाकी उपन्यास में अदालत के ही दृश्य हैं।


सुरेन्द्र मोहन पाठक अपने विशेष संवाद के लिए जाने जाते हैं। इस उपन्यास में भी कुछ पठनीय संवाद हैं।

- झूठ बोलना आसान होता है, झूठ पर कायम रहना बहुत मुश्किल है।
- मुहिम जंग का हो या जिन्दगी का, जीतना है तो हौसला जरूरी है।


                     - उपन्यास के कथानक में कुछ आवश्यक बातों को नजरअंदाज किया गया है। अगर कुछ प्रश्नों में आरम्भ में ही गौर की जाती (उपन्यास के अंत में चर्चा होती है) तो शायद कहानी इतनी लंबी न होती।
जैसे पार्टी प्रचारक गोविंद सुर्वे द्वारा क्रिस्टल लाॅज के गेट पर डाली गयी प्रचार सामग्री को घर के अंदर कौन लेकर आया। उस पर फिंगरप्रिंट की जांच का कहीं ज़िक्र तक नहीं।
              उपन्यास में प्रयुक्त भाषा शैली जो की पाठक साहब की एक विशेषता है वह कहीं कहीं अति नजर आती है। क्योंकि सभी पात्र एक जैसी उर्दू मिश्रित भाषा ही बोलते हैं। कुछ शब्द तो ऐसे हैं मेरे विचार से प्रयोग में ही कम है पर इस उपन्यास के पात्र बोलते हैं।


‘‘कौन फटकता! मैं उस चाल में नया था। मेरी वहां किसी से कोई वाकफियत नहीं थी।"

'वाकफियत' जैसे दीर्घ शब्द अब प्रचलन में नहीं इसकी जगह पहचान शब्द ही चलता है।
यह उपन्यास अदालत पर आधारित है तो स्वाभाविक है इसमें अंग्रेजी शब्दावली भरपूर मात्रा में होगी। जैसे-


‘‘आई स्ट्रांगली ऑब्जेक्ट, योर ऑनर। ये सब डिफेंस की गैरजरूरी ड्रामेबाजी है। दिस इज अज्यूमिंग दि फैक्ट्स नाट इन ईवीडेंस। दिस इज इररैलेवैंट, इनकम्पीटेंट एण्ड इममैटीरियल।’’

‘‘दि ऑब्जेक्शन इज सस्टेंड।’’ — मैजिस्ट्रेट बोला — ‘‘कोर्ट को भी ऐसा ही जान पड़ रहा है कि डिफेंस अटर्नी अननैसेसरी थियेट्रिकल्स का सहारा ले रहे हैं।’’

‘‘ऑब्जेक्टिड, योर ऑनर!’’ — मुकेश पुरजोर लहजे से बोला — ‘‘दिस काल्स फार दि कनक्लूजन आफ दिस विटनेस। आई डोंट थिंक दिस विटनेस इस क्वालीफाइड टु मेक सच कनक्लूजंस। प्रासीक्यूशन को गवाह को अपनी पसन्दीदा जुबान देने की कोशिश नहीं करनी चाहिये।’’
       
                 उपन्यास में सभी पात्र संस्था 'आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स' का पूरा नाम लेते हैं। यह संभव नहीं की किसी संस्था का इतना लंबा नाम बार बार लें। स्वय आनंद साहब तो इसे अप‌नी संस्था कह सकते थे और बाकी पात्र भी मात्र 'आनंद एसोसियट' कह कर काम चला सकते थे।

               उपन्यास में कुल दो ही तरह के दृश्य हैं एक कोर्ट के दूसरे वकील महोदय के कोर्ट के बाहर कुछ लोगों से चर्चा/ केस के विषय में जानकारी के।
उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है जो की कोर्ट / वकील के माध्यम से हल होती है।

निष्कर्ष-
             यह उपन्यास पूर्णतः कोर्ट रूम ड्रामा है। अगर पाठक कोर्ट और कानून को समझने में सक्षम है तो उपन्यास अच्छा है, अगर पाठक इन बातों में दिलचस्पी नहीं रखता तो यह उपन्यास उसके काम‌ का नहीं है।
कहा‌नी में ज्यादा ट्विस्ट नहीं है।

उपन्यास- क्रिस्टल लाॅज
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशक- हार्परकाॅलिंस पब्लिकेशन