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Thursday, 14 February 2019

171. क्रिस्टल लाॅज- सुरेन्द्र मोहन पाठक

 एक कोर्ट रूम कहानी
क्रिस्टल लाॅज- सुरेन्द्र मोहन पाठक, उपन्यास, मर्डर मिस्ट्री, कोर्ट रूम ड्रामा।

               मुकेश माथुर एक एक वकील था जो 'आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स' नामक एक लाॅ फर्म में काम करता था, जहाँ उसकी हैसियत नाममात्र की थी। परिस्थितिवश वह अपनी फर्म के खिलाफ काम कर बैठा, जो की वकील की दृष्टि में उचित था लेकिम फर्म की दृष्टि में नहीं। मुकेश माथुर उस फर्म से बाहर हो गया।


सत्य का साथी मुकेश माथुर एक बात का पक्ष धर है।-
सूर्य छिपे अदरी बदरी अरु चन्द्र छिपे जो अमावस आये,
पानि की बून्द पतंग छिपे अरु मीन छिपे इच्छाजल पाये;
भोर भये तब चोर छिपे अरु मोर छिपे ऋतु सावन आये,
कोटि प्रयास करे किन कोय कि सत्य का दीप बुझे न बुझाये।


                   राजपुरिया एस्टेट के मालिक अभय सिंह राजपुरिया एक बड़ा, खानदानी आदमी था। उधर इलाके में बड़ी इज्जत, बड़ा रौब, बड़ा दबदबा बताया जाता था उसका। काफी उम्रदराज...68 साल का था। एक दिन अपने घर में, बैडरूम में...जीटाफ्लैक्स नामक दवाई के ओवरडाॅज से मरे पाये गये।

‘‘कैसे मर गया, मालूम?’’
‘‘कहते हैं दिल की अलामत की कोई दवा रेगुलर खाता था, उसके ओवरडोज से मरा।’’
‘‘ठीक कहते हैं। दवा का नाम जीटाप्लैक्स है, पिछले दस साल से खा रहा था। ओवरडोज कैसे हो गया?’’
इन्स्पेक्टर ने कुछ क्षण उस बात पर विचार किया फिर इन्कार में सिर हिलाया।
‘‘तो?’’ — एसीपी बोला।
‘‘तो...खुदकुशी, सर!’’
‘‘यानी जिस दवा की एक गोली खानी थी, उसकी ढेर खा लीं!’’
‘‘ज-जी ... जी हां।’’
‘‘प्लान करके सुइसाइड की!’’
‘‘सर, आप कहते हैं तो...’’
‘‘मैं नहीं कहता। मैं पूछता हूं। तुम क्या कहते हो?’’
‘‘सर, हो तो सकता है!’’
‘‘पीछे कोई सुइसाइड नोट क्यों न छोड़ा?’’
‘‘नहीं छोड़ा!’’
‘‘मौकायवारदात से कोई सुइसाइड नोट बरामद नहीं हुआ था।’’
‘‘ओह!’’


इसी केस को लेकर मुकेश माथुर और 'आनंद एसोसिएट' आमने -सामने आ जाती हैं।

- अभय सिंह राजपुरिया की मौत क्या स्वाभाविक थी?
- क्या अभयसिंह ने आत्महत्या की?
- क्या अभय सिंह को किसी ने मारा?
- मुकेश माथुर और आनंद एसोसिएट का संघर्ष क्या रंग लाया?

           यह उपन्यास पूर्णतः कोर्ट और वकील वर्ग की बहस पर आधारित है। मुख्य किरदार मुकेश माथुर है जो अभी नये वकील है। दूसरी तरफ एक बड़ी संस्थान है। दोनों के बीच मुकाबला पठनीय है।
हालांकि उपन्यास में ज्यादा घुमाव नहीं है। उपन्यास एक मर्डर पर आधारित है। उपन्यास का अंत अवश्य कुछ टविस्ट लाता नहीं तो बाकी उपन्यास में अदालत के ही दृश्य हैं।


सुरेन्द्र मोहन पाठक अपने विशेष संवाद के लिए जाने जाते हैं। इस उपन्यास में भी कुछ पठनीय संवाद हैं।

- झूठ बोलना आसान होता है, झूठ पर कायम रहना बहुत मुश्किल है।
- मुहिम जंग का हो या जिन्दगी का, जीतना है तो हौसला जरूरी है।


                     - उपन्यास के कथानक में कुछ आवश्यक बातों को नजरअंदाज किया गया है। अगर कुछ प्रश्नों में आरम्भ में ही गौर की जाती (उपन्यास के अंत में चर्चा होती है) तो शायद कहानी इतनी लंबी न होती।
जैसे पार्टी प्रचारक गोविंद सुर्वे द्वारा क्रिस्टल लाॅज के गेट पर डाली गयी प्रचार सामग्री को घर के अंदर कौन लेकर आया। उस पर फिंगरप्रिंट की जांच का कहीं ज़िक्र तक नहीं।
              उपन्यास में प्रयुक्त भाषा शैली जो की पाठक साहब की एक विशेषता है वह कहीं कहीं अति नजर आती है। क्योंकि सभी पात्र एक जैसी उर्दू मिश्रित भाषा ही बोलते हैं। कुछ शब्द तो ऐसे हैं मेरे विचार से प्रयोग में ही कम है पर इस उपन्यास के पात्र बोलते हैं।


‘‘कौन फटकता! मैं उस चाल में नया था। मेरी वहां किसी से कोई वाकफियत नहीं थी।"

'वाकफियत' जैसे दीर्घ शब्द अब प्रचलन में नहीं इसकी जगह पहचान शब्द ही चलता है।
यह उपन्यास अदालत पर आधारित है तो स्वाभाविक है इसमें अंग्रेजी शब्दावली भरपूर मात्रा में होगी। जैसे-


‘‘आई स्ट्रांगली ऑब्जेक्ट, योर ऑनर। ये सब डिफेंस की गैरजरूरी ड्रामेबाजी है। दिस इज अज्यूमिंग दि फैक्ट्स नाट इन ईवीडेंस। दिस इज इररैलेवैंट, इनकम्पीटेंट एण्ड इममैटीरियल।’’

‘‘दि ऑब्जेक्शन इज सस्टेंड।’’ — मैजिस्ट्रेट बोला — ‘‘कोर्ट को भी ऐसा ही जान पड़ रहा है कि डिफेंस अटर्नी अननैसेसरी थियेट्रिकल्स का सहारा ले रहे हैं।’’

‘‘ऑब्जेक्टिड, योर ऑनर!’’ — मुकेश पुरजोर लहजे से बोला — ‘‘दिस काल्स फार दि कनक्लूजन आफ दिस विटनेस। आई डोंट थिंक दिस विटनेस इस क्वालीफाइड टु मेक सच कनक्लूजंस। प्रासीक्यूशन को गवाह को अपनी पसन्दीदा जुबान देने की कोशिश नहीं करनी चाहिये।’’
       
                 उपन्यास में सभी पात्र संस्था 'आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स' का पूरा नाम लेते हैं। यह संभव नहीं की किसी संस्था का इतना लंबा नाम बार बार लें। स्वय आनंद साहब तो इसे अप‌नी संस्था कह सकते थे और बाकी पात्र भी मात्र 'आनंद एसोसियट' कह कर काम चला सकते थे।

               उपन्यास में कुल दो ही तरह के दृश्य हैं एक कोर्ट के दूसरे वकील महोदय के कोर्ट के बाहर कुछ लोगों से चर्चा/ केस के विषय में जानकारी के।
उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है जो की कोर्ट / वकील के माध्यम से हल होती है।

निष्कर्ष-
             यह उपन्यास पूर्णतः कोर्ट रूम ड्रामा है। अगर पाठक कोर्ट और कानून को समझने में सक्षम है तो उपन्यास अच्छा है, अगर पाठक इन बातों में दिलचस्पी नहीं रखता तो यह उपन्यास उसके काम‌ का नहीं है।
कहा‌नी में ज्यादा ट्विस्ट नहीं है।

उपन्यास- क्रिस्टल लाॅज
लेखक- सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशक- हार्परकाॅलिंस पब्लिकेशन


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