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Sunday, 30 September 2018
144. हंस- पत्रिका
हंस पत्रिका- नवसंचार के जनाचार हंस पत्रिका का सितंबर -2018 अंक नवसंचार के जनाचार को समर्पित है। यह हंस का विशेषांक है। इस अंक में वर्तमान सोशल मीडिया संबंधी आलेख पढने को मिलेंगे। संपूर्ण अंक को कई भागों में बांटा गया है। मेमरी ड्राईव- आदिकाल इमाॅटिकाॅन- छवि भाषा डिजिटल डेमाॅक्रैसी- वायरल जनतंत्र हैशटैग- अस्मिता विमर्श बुकमार्क इस प्रकार समस्त आलेख दस भागों में विभक्त हैं। प्रत्येक खण्ड/भाग में शीर्षक संबंधी सामग्री समेटने की कोशिश की गयी। वर्तमान में सोशल मीडिया का किस तरह से प्रयोग हो रहा है इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है। सोशल मीडिया ने चाहे अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता दे दी लेकिन इसके गंभीर खतरे भी हैं। संपादकीय में बहुत अच्छी बात लिखी है- लेखन का अर्थ सत्ता की चाकरी, कुर्सी और पद बचाने के लिए किसी भी हद तक गिर जाना नहीं बल्कि रीढ और साख को सही सलामत रखना है। (पृष्ठ-10) रवि रतलामी का आलेख 'धड़ल्ले से कैसे लिखें देवनागरी में?' देवनागरी लेखन को प्रेरित और लेखन में आयी समस्या-समाधान को समर्पित है। इंटरनेट पर पहले हिंदी लेखन एक समस्या थी, फाॅट की समस्या बहुत ज्यादा थी लेकिन वर्तमान में यह समस्या बहेहद तक सुलझ गयी। फाॅट को लेकर उत्पन्न समस्या पर आधारित है डाॅ. प्रकाश हिंदुस्तानी का आलेख 'इंटरनेट पर हिंदी का आना। हिंदी फाॅट की समस्या एक समय बहुत ज्यादा थी , जिसका सामना उस समय के कम्प्यूटर प्रयोक्ता को करना पड़ता था। अनूप शुक्ल का आलेख चाहे ब्लॉगिंग से संबंधित है, पर फाॅट समस्या उनको भी झेलनी पड़ी। इनके आलेख 'ब्लाॅगिंग: आदिम डिजिटल विधा' में ब्लॉग सबंधित काफी अच्छी जानकारी दी गयी है। एक समय था तक ब्लॉग सोशल मीडिया में खूब प्रचलन में था। "अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लॉगिंग का प्राण तत्त्व है।" बालेन्दु शर्मा दधीज ने 'रचना के फिसलते मौके' में सोशल मीडिया के बारे में बहुत अच्छी बात कही है। वो लिखते हैं- "....आखिर क्यों हम अपने समाज, साहित्य, कला और देश के लिए सकारात्मक ढंग से इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे?" (पृष्ठ-36) आज हमारे पास सोशल मिडिया जैसा सार्वजनिक मंच है जहां हम अपनी बात स्वतंत्रता के साथ कह सकते हैं लेकिन क्या हम इस मंच का सार्थक उपयोग कर पा रहें हैं। अगर हम सोशल मीडिया जैसे मंच का सार्थक उपयोग कर पाये तो यह हमारी उपलब्धि होगी। सुशील जी 'छवियों का कुरुक्षेत्र' में लिखते है की हम बिना सोचे- समझे किसी भी तस्वीर को शेयर कर देते हैं। हम उस तस्वीर की सच्चाई जानने की कोशिश भी नहीं करते। हमारी एक छोटी सी भूल किसी के जीवन के लिए खतरा भी हो सकती है। हम जाने -अनजाने में किसी असत्य बात का प्रचार कर देते हैं। इसलिए आवश्यक है की किसी भी चित्र को सोशल मिडिया पर शेयर करने से पूर्व उसकी सत्यता परख लें यह अंक हंस का अन्य अंको से अलग है। उस अंक में कथा-कहानी या कविता को स्थान न देकर मात्र नवसंचार के जनाचार को ही स्थान दिया गया है। अगर वर्तमान सोशल मीडिया को समझना है तो यह अंक काफी उपयोगी होगा। ----- पत्रिका- हंस अंक- सितंबर -2018(पूर्णांक-383, वर्ष-33, अंक-2) संपादक- संजय सहाय www.hanshindimagazine.in |
हंस का सितंबर अंक |
Saturday, 29 September 2018
143. कपालकुण्डला- बंकिमचन्द्र चटर्जी
बंकिमचन्द्र चटर्जी बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ध रचनाकार हैं। इनकी रचनाएँ विभिन्न भाषाओं में अनुदित होती रही हैं।
इनकी एक रचना है, लघु उपन्यास है -कपालकुण्डला। मेरे लिए यह शब्द 'कपालकुण्डला' सदा से ही जिज्ञासा का विषय रहा है की आखिर इस शब्द का अर्थ क्या है।
जब यह उपन्यास मेरे विद्यालय राजकीय उच्च माध्यम विद्यालय-आबू पर्वत (माउंट आबू, सिरोही) के पुस्तकालय में नजर आया तो इसे तुरंत उठा लिया।
जब पढना आरम्भ किया तो बहुत रोचक और दिलचस्प लगा।
आज से अढाई सौ साल पहले माघ महिने में एक नाव यात्रियों से लदी हुई गंगासागर से वापस आ रही थी। उन दिनों समुद्री डाकू तथा पुर्तगाली लुटेरों के डर के कारण कोई भी नाव अकेले न आती थी क्योंकि अकेल आना खतरे से खाली न था। पर वह नाव अकेले ही आ रही थी। गहरे कुहरे तथा रात के अंधकार के कारण मल्लाह दिशा भूलकर गलत रास्ते को चल पड़े और उन्हें यह न पता चला कि किस ओर जा रहे हैं।
नाव रास्ता भटकी गयी और फिर नाव से अलग होकर एक युवक जंगल में रास्ता भटक गया। यह युवक है नव कुमार, उपन्यास का नायक। अनजान व्यक्ति निश्चय ही जंगल में थोडी़ दूर जाने पर ही रास्ता भूल जाता है। वही दशा युवक की भी हुयी। (पृष्ठ-08)
इस भटकाव में युवक की मुलाकात एक कापालिक से होती है। गले में रुद्राक्ष की माला थी। मुख पर लंबी दाडी़ तथा सिर पर जटाओं के होने से उसकी शक्ल पहचानना मुश्किल था। (पृष्ठ-06)
उसी कापालिक साधु के माध्यम से उसे वहाँ एक लड़की मिलती। उस लड़की नाम है -कपाल कुण्डला।
ऐसे सुनसान जंगल में वह उस अपूर्व सुंदरी को देखकर दंग रह गया। वह युवती भी अपनी चंचल आंखों से उसे लगातार देखे जा रही थी। (पृष्ठ-8)
यहीं से नव कुमार और कपाल कुण्डला की प्रेमकथा आरम्भ होती है। कापालिक साधु तांत्रिक सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नव कुमार की बलि देना चाहता है। लेकिन कपालकुण्डला की मदद से वह, कपालकुण्डला को साथ लेकर शैतान कापालिक के जाल से निकल भागता है।
यह तो है कहानी का एक भाग या यूं कह सकते हैं यह कहानी का मध्यांतर से पूर्व का भाग है। नव कुमार का बचपन में ही रिश्ता तय हो जाता है, लेकिन उस लड़की की विपरीत परिस्थितियों के चलते वह नव कुनार को मिल नहीं पाती। जब नवकुमार को मिलती है तो तब नव कुमार कपालकुण्डला के साथ शांतिपूर्वक वैवाहिक जीवन जी रहा होता है।
एक तरफ नव कुमार का वैवाहिक जीवन है, एक तरफ नव कुमार की बचपन की पूर्व मंगेतर पद्मावती (लुत्फुन्निया) है और एक तरफ शैतान कापालिक है।
लुत्फुन्निया ही नव कुमार और कपालकुण्डला के बीच दूरी पैदा करना चाहती है। "कपालकुण्डला के प्रति उसके पति के मन में घृणा पैदा करके उससे संबंध विच्छेद करना तभी मेरा कार्य सफल होगा।" (पृष्ठ-41)
यह कहानी मूलतः आपसी प्रेम और विश्वास की कहानी है। प्रेम तभी सफल जोतेहै जब तक उसमें विश्वास स्थापित रहता है। जब विश्वास नहीं होता तो प्रेम भी खत्म हो जाता है।
कपालकुण्डला एक संन्यासिन का जीवन जी चुकी है। उसके लिए प्रेम महत्वपूर्ण है, विश्वास महत्वपूर्ण है। जब वैवाहिक जीवन में विश्वास नहीं तो वह वैवाहिक जीवन कैसा। नवकुमार जब कपालकुण्डला पर अविश्वास प्रकट करता है तो वह कहती है- "क्या विश्वास की केवल आपको जरूरत है मुझे नहीं हो सकती? मेरे प्रति आपके दिल में बुरे भाव पैदा होना क्या मेरा अनादर नहीं है?" (पृष्ठ-62)
यही भाव दोनों की वैवाहिक जीवन को खत्म कर देता है।
उपन्यास का आरम्भ एक नाव से होता है जो रास्ता भटक गयी, तब लगता है यह उपन्यास कोई साहसिक समुद्री यात्रा से संबंधित है, बाद में नव कुमार जंगल में भटकता है और कापालिक से मिलता है, तब लगता है यह कोई हाॅरर कथा है। उपन्यास को पढने पर पता चलता है यह एक प्रेम कथा है जो आपसी विश्वास और प्रेम की बात करती है।
उपन्यास में लुत्फुन्निया का संबंध मुगल शासक वर्ग से दिखाया गया है और मुगल शासक सलीम का वर्णन भी उपन्यास में है। यह प्रकरण मेरे विचार से उपन्यास में अनावश्यक सा लगता है। इसकी जगह पद्मावती उर्फ मोती बीबी उर्फ लुत्फुन्निया का वर्णन अन्य तरीक़े से होता तो ज्यादा अच्छा था।
उपन्यास का समापन बहुत ही मार्मिक है जो पाठक के हृदय में एक दर्द की टीस पैदा कर जाता है। उपन्यास आकार में छोटा है। पढने में रोचक और दिलचस्प है
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उपन्यास- कपाल कुण्डला
लेखक- बंकिमचन्द्र चटर्जी
प्रकाशक- सन्मार्ग प्रकाशन, 16 UB, बैग्लो रोड़, दिल्ली-07
वर्ष- 1990
पृष्ठ-
उपन्यास के कुछ अंश यहाँ पढे जा सकते हैं।
https://www.pustak.org/books/bookdetails/3559
142. किराये के हत्यारे- चन्दर
किराये के हत्यारे- चन्दर, थ्रिलर उपन्यास, रोचक।
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उपन्यास की कहानी एक वकील साहब के परिवार के चारों तरफ घूमती है। परिवार में वकील सूरज,उनकी पत्नी करूणा देवी, नौकर मंगलसिंह और एक नौकरानी कल्लो है।
यह कहानी नौकर मंगल सिंह के माध्यम से ही आगे बढती है। मंगल सिंह वकील साहब के घर का नौकर है और इस उपन्यास का नायक भी है।
एक गांव है हजरतबल। एक बार वकील जी के काम से मंगल सिंह हजरतबल गांव गया। हजरत बल गांव में हर व्यक्ति डरपोक था।(पृष्ठ-01)....ऐसे गाँव में वकील साहब ने अपना मेहनतामा वसूल करने के लिए मुझे इसलिए भेजा था मैं ही एक मर्द नौकर उनके यहाँ था। (पृष्ठ-06)
जैसे
पहलवान भोलाराम का सिर उसी के गंडासे से कटा मिला।
- गबरू झींवर की लड़की पना का शव गांव के बाहर पेङ से लटका मिला।
गांव था ही इतना ख़तरनाक। ग्रामीण भी यही कहते थे।
"भैया, तुम यहाँ न रुको। अच्छा, तुम लौट जाओ भैया। यह गांव मनहूस है। यहाँ हत्यारों का राज है हत्यारों का।"
"कौन हत्यारे?"- मेरे दिल में एक ठण्डी छुरी सी उतरती चली गयी।
यह दोनों दृश्य उपन्यास में सस्पेंश बनाये रखते हैं। इसी तरह वकील का अपनी पत्नी को कत्ल करने की साजिश रचना भी उपन्यास का एक पहलु है लेकिन अफसोस इन घटनाओं का उपन्यास में कोई तालमेल ही नहीं बैठता और न ही इनका कहीं कोई स्पष्टीकरण मिलता है। इन घटनाओं के कारण जो रहस्य और रोमांच बना था वह अंत में निराशा में बदल जाता है।
उपन्यास का आरम्भ हजरतबल गांव की उक्त दो घटनाओं से होता है। उपन्यास में रोचकता भी जगती है फिर वकील का अपनी पत्नी को मरवाने का षड्यंत्र रचना भी इस उत्सुकता में बढोत्तरी करता है लेकिन उपन्यास अपने तृतीय चरण में कहीं और घूम जाता है। यह तृतीय चतण ही उपन्यास की मूल कथा है। यहाँ से उपन्यास पूर्णत: एक नयी दिशा को मुङ जाती है। हालांकि यह तीसरा मोड़ उपन्यास को रोचकता तो देता है लेकिन उपन्यास को गति प्रदान नहीं कर पाता। और फिर तीनों घटनाओं/प्रकरण/मोड़ का आपसी तालमेल भी नहीं बैठता। हालांकि लेखक ने एक कोशिश की है की पहली दो घटनाओं को आपसे से संबंधित किया जाये।
उपन्यास का आरम्भ बहुत अच्छा है। इसे लेखक मेहनत से बहुत अच्छा बना सकता है। उपन्यास की घटनाएं और भाषा शैली इतनी रोचक है की पाठक स्वयं इससे जुड़ाव महसूस करता है लेकिन लेखक की कमी के कारण एक बेहतरीन उपन्यास बेहतर न बन सका।
करुणा देवी भी मंगल सिंह के सीधेपन लिए कहती है।
"हमारे इस बुद्धु राम के लिए सब माँ ही माँ है। बस, भोजन अच्छा बनाना आना चाहिए।"
मंगल सिंह है भी भोजन भट्ट उसे तो खाना चाहिए। वह खुद भी कहता है। "यों ही दो रोटी दूसरों से ज्यादा खा लेता हूँ।"
कम तो पहलवान भी नहीं है। वह भी नायक के साथ-साथ सत्य की खोज करता है। वह कहता है- "बेटे, जिस बात का तालमेल मेरे दिमाग में नहीं बैठता। उसकी तह तक पहुंचने का आदि हूँ।"
किसी भी उपन्यास में उसकी भाषा शैली और संवाद बहुत महत्व रखते हैं। संवाद ही कथा को गति प्रदान करते हैं। इस उपन्यास के संवाद भी पठनीय है।
इस उपन्यास की भाषा शैली की बात करें तो यह बहुत रोचक है। जहाँ वकील और करूणा देवी की भाषा में ....वहीं मंगल सिंह की भाषा शैली इनसे अलग है।
कल्लो के संवाद और उसका लहजा उपन्यास में सबसे अलग है। वह ग्रामीण हरियाणवी अंदाज में बात करती है।
झज्जन, और खलनायक द्वय की भाषा भी रोचक है।
-औरत के रुतबे और हैसियत का भी कोई ठिकाना होता है भला। पति ने जितना चढाया उतनी चढ गयी। जितना उतारा उतनी उतर गयी।
इस उपन्यास की कहानी कई स्तर पर अलग-अलग घुमाव लेती है, लेकिन कहानी में कोई तारतम्य स्थापित नहीं होता। कहानी मूल विषय से भटकी सी नजर आती है।
उपन्यास में कहानी की बजाय इसकी शैली बहुत रोचक है। अपनी भाषा शैली के कारण उपन्यास स्वयं रोचकता बनाये रखता है।
उपन्यास एक बार पढा जा सकता है।
उपन्यास- किराये के हत्यारे
लेखक- चन्दर
वर्ष- सितंबर, 1974
पृष्ठ- 125
प्रकाशक- सुबोध पॉकेट बुक्स, दिल्ली।
141. दौलत और खून- सुरेन्द्र मोहन पाठक
विमल सीरिज -02
अगर आदमी की किस्मत बुरी हो तो उसका हर अच्छा काम भी बुरा हो जाता है, अगर किस्मत बुरी हो तो घर बैठे भी मुसीबत आ जाती है। ऐसी ही बुरी किस्मत है सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल उर्फ विमल खन्ना उर्फ गिरीश की।
विमल एक मुसीबत से बचता है तो आगे एक और नयी मुसीबत तैयार होती है। उसकी बेबस जिंदगी का हर कोई फायदा उठाना चाहता है।
'दौलत और खून' उपन्यास विमल सीरिज का दूसरा उपन्यास है लेकिन दोनों की कहानी पूर्णतः अलग-अलग है, पर दोनों कहानियों को दो बातें आपसे में जोड़ती हैं। एक तो स्वयं विमल और दूसरा वह हार जो विमल 'लेडी शांता गोकुलदास' से चुरा कर लाया था।(उपन्यास 'मौत का खेल')
यही हार इस बार विमल के लिए मौत का हार बनता है। मुंबई से फरार विमल जा पहुंचता है मद्रास। तंगहाली की जिंदगी जीने वाला विमल उस हार को बेच कर कुछ रुपयों की व्यवस्था करना चाहता है और यहीं से वह कुछ गलत लोगों की नजर में चढ जाता है। "अपना नाम गिरीश बताने वाला यह युवक शर्तिया वही विमल कुमार खन्ना है जिसकी लेडी शांता गोकुलदास की हत्या के इल्जाम में पुलिस को तलाश है।" (पृष्ठ-120)
140. मौत का खेल- सुरेन्द्र मोहन पाठक
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" भूखा हूं, जनाब"
"मैंने तुमसे यह नहीं पूछा है।"
"मैं इस वक्त आपको अपना इससे बेहतर परिचय देने की स्थिति में नहीं हूँ।"
यह एक छोटा सा परिचय है उपन्यास के नायक विमल का। विमल जो की वक्त का मारा एक ऐसा पात्र है जिसकी जिंदगी 'होइहि सोइ जो राम रचि राखा' की तर्ज पर चलती है।
समय की मार और अपनों की बेवफाई से परेशान विमल नये शहर में नये नाम के साथ जीवन जीना चाहता है। लेकिन वक्त विमल के पक्ष में न था।
विमल को एक और महिला लेडी शांता गोकुलदास से परिचय हुआ। विमल जो की 'दूध का जला छाछ फूंक-फूंक कर पीने वाला' शख्स था। लेकिन दूध का जला यहाँ छाछ से भी जल गया।
Wednesday, 26 September 2018
139. वंदे मातरम् - वेदप्रकाश शर्मा
वेदप्रकाश शर्मा का उपन्यास 'जय हिन्द' का द्वितीय भाग है 'वंदे मातरम'। मुझे लगे समय से इस उपन्यास की तलाश थी बहुत कोशिश के पश्चात संगरिया निवासी रतन लाल कूकणा जी ( हनुमानगढ, राजस्थान) से यह उपन्यास मिला।
मुझे वेदप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास काफी रोचक लगते हैं। अगर आप उनके उपन्यासों को फिल्म की तरह पूर्णतः काल्पनिक रूप से लीजिएगा फिर देखिएगा की उनके उपन्यास कितने जबरदस्त होते हैं, इसलिए तो वेदप्रकाश शर्मा हिन्दी जासूसी साहित्य में सर्वाधिक चर्चित लेखक रहे हैं।
वेद जी के उपन्यास सामाजिक थ्रिलर होते थे, उनकी कहानी बहुत अलग प्रकार की होती थी। वे उपन्यासों में प्रयोग ही इतने अच्छे करते थे की पाठक उनसे बंधा रह जाता था। जैसा की उन्होंने 'जय हिन्द' उपन्यास में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को प्रस्तुत किया। ऐसा ही प्रयोग उनके उपन्यास 'इंकलाब-जिंदाबाद' में है, कहां झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के पुत्र दामोदर को पेश किया है।
अब बात करते हैं उपन्यास 'वंदेमातरम' की। यह उपन्यास 'जय हिन्द' उपन्यास का द्वितीय और अंतिम भाग है। जय हिन्द उपन्यास वहाँ खत्म होता है जब सीक्रेट सर्विस के चीफ के समक्ष स्वयं नेताजी सुभाषचन्द्र प्रस्तुत होते हैं।
नेताजी जी का व्यक्तित्व हमेशा रहस्यमय रहा है। विशेषकर उनके जीवन और मृत्यु को लेकर इतिहास असमंजस में हैं। इसी असमंजस को लेकर वेदप्रकाश जी ने एक काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास रच दिया।
उपन्यास का कथानक नेताजी जी के नये संगठन 'अखण्ड हिन्द फौज' की विध्वंसक गतिविधियों से आरम्भ होता है। अखण्ड हिन्द फौज और नेताजी से प्रेरित होकर असंख्य युवक इस फौज में शामिल हो जाते हैं। यहाँ तक की कुछ पुलिसवाले भी इस संगठन के सदस्य हैं।
वहीं दूसरी तरफ भारतीय सिक्रेट सर्विस के प्रमुख नेताजी के अस्तित्व को नकारते हैं। जहाँ जासूस विजय नेताजी को नकली मानता है वहीं जासूस विकास उनसे प्रभावित होता है।
- अखण्ड हिन्द फौज के सभी जवानों के दिमाग में यह बात ठूंसो कि ....स्टेडियम में जो सुभाष आ रहा है वह नकली है। (पृष्ठ-159)
- स्टेडियम में उस कथित नेताजी के पहुंचते ही उसे कत्ल कर दो।
- इस देश के महान सेनानी सुभाष के प्रगट होने को विदेशी एजेन्टों का षड्यंत्र बतायेंगे या उन्हें गोली मारेंगे।
- क्या नेताजी जिंदा हैं?
- तो क्या वास्तव में नेताजी जी नकली थे?
- क्या यह विदेशी लोगों का षड्यंत्र था?
- कौन लोग थे जो नेताजी का कत्ल करना चाहते थे?
इन सभी उलझे प्रश्नों के उत्तर तो 'वंदेमातरम' उपन्यास पढकर ही मिलेगा।
'वंदेमातरम' उपन्यास एक काल्पनिक पर रोचक कथानक है। जिसमें नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को प्रस्तुत किया गया है। यहाँ एक तरफ यह विदेशी षड्यंत्र लगता है वहीं नेताजी के जीवित होने का अहसास भी होता है। लेखक ने बहुत कुशलता से एक अच्छे कथानक को रचा है जिसमें दिग्गज जासूस विजय-विकास भी उलझ कर रहे जाते हैं।
उपन्यास में अंतर्राष्ट्रीय मुजरिम अलफांसे का किरदार भी अच्छा है। हालांकि अलफांसे को किरदार उपन्यासकारों में कम दिखाई देता है लेकिन वह अपनी जबरदस्त उपस्थित दर्शाता है।
'अलफांसे की चाल इसी को कहते हैं मिस्टर चीफ, आदमी सबकुछ समझते हुए भी उसमें फंसने के लिए मजबूर होता है। (पृष्ठ-113
प्रस्तुत उपन्यास एक एक अलग प्रकार का अहसास करवाने वाला अच्छा व रोचक उपन्यास है। जो अपने अंदर कई रहस्य समेटे हुए है। पाठक पल-पल इस द्वंद्व से गुजरता है की क्या नेताजी सुभाषचंद्र बोस जीवित है या नहीं।
निष्कर्ष-
'जय हिन्द' उपन्यास का द्वितीय भाग 'वंदेमातरम' नेताजी सुभाषचंद्र बोस के एक रहस्य मृत्यु को आधार बना कर रचा गया एक रोचक उपन्यास है। भारतीय जन मानस में नेताजी की मृत्यु को लेकर एक गहरा विरोधाभास है। यही विरोधाभास इस उपन्यास में एक सुखद अहसास करवाता है।
उपन्यास आदि से अंत तक रोचक और पठनीय है।
उपन्यास- वंदेमातरम
लेखक- वेदप्रकाश शर्मा
प्रकाशक- तुलसी पॉकेट बुक्स
पृष्ठ- 223
उपन्यास 'जय हिन्द' की समीक्षा जय हिन्द
Sunday, 16 September 2018
138. जय हिंद- वेदप्रकाश शर्मा
जय हिंद- वेदप्रकाश शर्मा, जासूसी उपन्यास, रोचक, पठनीय।
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