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Saturday, 5 July 2025

अदल बदल - आचार्य चतुरसेन शास्त्री

 स्त्री स्वतंत्रता या उच्छृंखल
अदल-बदल - आचार्य चतुरसेन शास्त्री

भारतीय समाज में नारी को धार्मिक दृष्टि से चाहे उच्च श्रेणी दी गयी हो पर समाज में उसका स्थान बहुत पीछे है। वह गर की चारदीवारी तक सीमित थी, शिक्षा से दूर रही लेकिन बदलते वक्त के साथ औरत को स्वतंत्रता मिली, वह घर की चारदीवारी से बाहर निकली, यहाँ तक तो सब उचित था लेकिन इस से आगे जो घटित हुआ वह अनुचित था।
हम पहले चतुरसेन शास्त्री जी के उपन्यास 'अदल-बदल' का एक पृष्ठ देखें-
डाक्टर कृष्णगोपाल आज बहुत खुश थे। वे उमंग में भरे थे, जल्दी-जल्दी हाथ में डाक्टरी औजारों का बैग लिए घर में घुसे, टेबल पर बैग पटका, कपड़े उतारे और बाथरूम में घुस गए । बाथरूम से सीटी की तानें आने लगीं और सुगन्धित साबुन की महक घर-भर में फैल गई। बाथरूम ही से उन्होंने विमलादेवी पर हुक्म चलाया कि झटपट चाइना सिल्क का सूट निकाल दें।
विमलादेवी ने सूट निकाल दिया, कोट की पाकेट में रूमाल रख दिया और पतलून में गेलिस चढ़ा दी, परन्तु डाक्टर कृष्णगोपाल जब जल्दी-जल्दी सूट पहन, मांग-पट्टी से लैस होकर बाहर जाने को तैयार हो गए तो विमलादेवी ने उनके पास आकर धीरे से कहा, "और खाना ?"
"खाना नहीं खाऊंगा।"
"क्यों ?"
"पार्टी है, वहां खाना होगा ।"
"लेकिन रोज-रोज की ये पार्टियां कैसी हैं ?"
"तुम्हें इस पंचायत से वास्ता ?"

यह दृश्य है आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी के उपन्यास 'अदल-बदल' का । 'अदल-बदल' एक लघु उपन्यास है, जो वर्तमान स्त्री की स्वतंत्रता, आधुनिकता और उच्छृंखल
पर आधारित है।
उपन्यास का आरम्भ डाक्टर कृष्णगोपाल से होता है, जो एक स्थापित डॉक्टर है पर शराब और शबाब उसकी कमजोरी है। डाक्टर अपनी पत्नी को पसंद नहीं करता और बाहर क्लबों में रात बिताता है और अपनी पत्नी और पुत्री का ख्याल नहीं रखता।
उपन्यास की दूसरा कहानी  मायादेवी से संबंधित है जो एक मास्टर हरप्रसाद की पत्नी और एक पुत्र की माँ । मायादेवी को महसूस होता है की वह घर की चारदीवारी में कैद है और इसी कथित आजादी के लिए वह अपने पति और पुत्र को छोड़कर रात क्लब में बिताती है।
-"युग-युग से नारी को पुरुष ने घर के बन्धन में डालकर कमजोर बना दिया है, अब वे भी पुरुष के समान बल संचित कर घर के बाहर के संसार में विचरण करेंगी ।" मायादेवी ने उपेक्षा से पति की ओर देखते हुए कहा ।
कहानी का तीसरा पक्ष है- 'आजाद महिला संघ' और उसकी अध्यक्षा मालती देवी। मालती देवी एक अमीर विधवा है, विदेश रही है और भारत आते ही उसने आजाद महिला संघ का सूत्रपात कर दिया ।
यह समय वह था जब हिंदूकोड बिल की चर्चा जोरों पर थी और यह बिल स्त्री स्वतंत्रता की बात करता है।
मालती देवी माया देवी को यही समझाती है-"हिन्दू कोडविल तुम्हारे लिए आशीर्वाद लाया है, नई ज़िन्दगी का संदेश लाया है। यह तुम जैसी देवियों के पैरों में पड़ी परतंत्रता की बेड़ियों को काटने के लिए है। इससे तुम लाभ उठाओ ।"
   मालती देवी के माध्यम से ही कहानी आगे बढती है और मायादेवी तथा डाक्टर कृष्णगोपाल तलाक लेकर एक साथ जीवन व्यतीत करने का सोचते हैं।
कहानी भारतीय समाज और स्त्री- पुरुष संबंधों पर आधारित है। उपन्यास की विशेषता इसके संवाद है जो बहुत कुछ सिखाते हैं और सोचने के लिए विवश भी करते हैं।
कुछ संवाद देखें-
-
समाज के दो समान रूप हैं-- एक नर, दूसरा नारी । दोनों एक वस्तु के दो रूप हैं। दोनों मिलकर एक सम्पूर्ण वस्तु बनती है।"

"आपकी बात स्वीकार करता हूं, परन्तु लैंगिक आकर्षण और लैंगिक तृप्ति से जो पारस्परिक प्रीति उत्पन्न होती है उसे प्रेम नहीं कहा जा सकता, यदि किसी स्त्री-पुरुष के जोड़े की परस्पर काम-तृप्ति होती रहती है तो उनमें प्रीति उत्पन्न हो जाती है, अर्थात् एक-दूसरे के लिए रुचिकारक भोजन की भांति प्रिय हो जाते हैं। लोगों ने इसी का नाम 'प्रेम' रख लिया है।"
-"पुत्र, माता-पिता के अंग से उत्पन्न होकर दिन-दिन दूर होता जाता है। पहले वह माता के गर्भ में रहता है, फिर उसकी गोद में, इसके बाद घर के आंगन में, पीछे आंगन के बाहर और तब सारे विश्व में वह घूमता है। परन्तु पत्नी दूर से पति के पास आती है, वह दिन-दिन निकट होती जाती है। उनके दो शरीर जब अति निकट होते हैं तब उससे तीसरा शरीर संतान के रूप में प्रकट होता है, जो दोनों के अखण्ड संयोग का मूर्त चिह्न है । अब आप समझ सकती हैं कि पति-पत्नी-विच्छेद का प्रश्न उठ ही नहीं सकता है।"

   प्रस्तुत उपन्यास स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखल को बढावा देने वाले लोगों के विषय में बात करता है। उपन्यास भारतीय समाज में स्त्री- पुरुष के बंधन, विवाह आदि के विषय में अच्छी जानकारी देता है।
उपन्यास पठनीय है।

उपन्यास- अदल-बदल
लेखक-   आचार्य चतुरसेन शास्त्री
प्रकाशन वर्ष- 1969
प्रकाशक- हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली

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