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Wednesday, 22 November 2023

मौत की घाटी में- चंदर ( आनंदप्रकाश जैन)

भोलाशंकर की चीन यात्रा
मौत की घाटी में- चंदर ( आनंदप्रकाश जैन
)

उस खूबसूरत घाटी में एक पुराना किला था और किले में एक बौद्ध मठ । दूर-दूर से धार्मिक लोग आते और मठाधीश को माथा नवाते । लेकिन वे बेचारे नहीं जानते थे कि पर्दे के पीछे कौन-सा नाटक चल रहा है; दुनिया भर में फैली चीन की भयानक जासूसी का उस किले से क्या सम्बन्ध है ! इन प्रश्नों के सही उत्तर पाने और चीन के जासूसी षड्यन्त्र को समाप्त करने के लिए भोलाशंकर उस मौत की घाटी में पहुंचा

लोकप्रिय जासूसी उपन्यासकार चन्दर ने अपने इस नवीनतम उपन्यास में राजनैतिक जासूसी के कुछ ऐसे हथकंडों पर प्रकाश डाला है, जो अब तक रहस्य बने हुए थे।
    जासूसी उपन्यास साहित्य में चंदर का नाम काफी चर्चित रहा है। उनके द्वारा सृजित पात्र पण्डित गोपालशंकर और भोलाशंकर को पाठक याद करते हैं। चंदर महोदय ने भोलाशंकर को भारतीय जेम्स बॉण्ड बनाने की हल्की सी कोशिश की है, लेकिन विशेष कोशिश नहीं की गयी। इन दिनों में चंदर द्वारा लिखित कुछ उपन्यास पढे हैं, जैसे- चांद की मल्का, मकड़ा सम्राट, कोहरे में भोलाशंकर, रूस की रसभरी इत्यादि। उपन्यास मुझे रोचक लगे।
 अब बात करते हैं भोलाशंकर सीरीज के उपन्यास 'मौत की घाटी में'।
"चीन के प्रधानमंत्नी चाऊ एन-लाई भारत आ रहे हैं।"
"क्यों आ रहे हैं ?"
"किसलिए आ रहे हैं ?"
"क्या अब भी हमसे 'हिन्दी चीनी भाई-भाई' का नारा लगाने को कहा जाएगा ?"
"हूं, दोस्ती का ढोंग रचकर पीठ में छुरा भौंकने वाले क्या अब भाड़ झोंकने आ रहे हैं ?"
"नेहरूजी को भी क्या कहा जाए, शांति के दुश्मन से शांति-वार्ता की सोच रहे हैं !"
"मैं कहता हूं, हम लोगों में पुरुषत्व ही नहीं रह गया है। इस देश में महात्मा गांधी जैसी महान् आत्माओं को गोली मार देने वाले लोग तो पैदा हो गए, मगर ऐसे विश्वासघाती मज़े से आकर सही- सलामत लौट जाते हैं।"
       भारतीय जनता में बहुत रोष था। चाऊ एन-लाई के भारत आगमन का पूर्व समाचार सुनते ही घृणा और क्षोभ जन-जन के मन में उमड़ पड़ा था। कुछ ही दिन तो हुए थे चीन के कृतघ्नतापूर्ण आक्रमण को; हर व्यक्ति के दिल में जख्म ताज़ा था ।
रोषपूर्ण उद्गार तो थे ही, कुछ अफवाहें भी फैलने लगी थीं- "देख लेना, चीन के प्रधानमंत्री जीवित भारत से नहीं लौट सकेंगे। उन्हें कुछ न कुछ होकर रहेगा। इतना व्यापक असंतोष और क्षोभ अवश्य ही कोई रंग दिखाकर रहेगा ।" 

  सन्  1962 से पूर्व 'भारत-चीनी भाई-भाई' के नारे लगाने वाले भारत की पीठ पर चीन ने छुरा मार दिया था। सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध और फिर समझौता हुआ था। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में सन् 1962 युद्ध के बाद की परिस्थितियाँ हैं। जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भारत आने वाले हैं। 
        उन दिनों भोलाशंकर कलकता में था, अपनी प्रेयसी डाॅली से मिलने से पूर्व ही 'स्वीप' ने उसे याद किया और भोलाशंकर 'स्वीप' के अधिष्ठाता पण्डित गोपालशंकर के सामने उपस्थित था। और उसे जिम्मेदार दी गयी थी चीन के प्रधानमंत्री की सुरक्षा की, क्योंकि उन दिनों यह भी चर्चा थी चीन के प्रधानमंत्री की भारत में हत्या की जा सकती है।
"हम आंतरिक अफवाहों की उपेक्षा कर जाते । लेकिन प्रारंभिक जांच से पता चला है कि इनका स्रोत चीन ही है। पाकिस्तान के रास्ते इन अफवाहों ने भारत में प्रवेश किया है। ईश्वर करे ये वास्तव में अफवाहें ही सिद्ध हों। किंतु यदि सत्य सिद्ध हो गईं तो यह भी निश्चित है कि तीसरा विश्वयुद्ध भारत की भूमि से शुरू होगा । इसे आग भड़काने के लिए चीन की एक चाल भी माना जा सकता है।" 
  लेकिन यह बातें अपवाह हो या सत्य लेकिन भारत ऐसा खतरा नहीं लेना चाहता। अगर कहीं भारत में चीन के प्रधानमंत्री की हत्या हो गयी तो?
  इस प्रश्न चिह्न से आगे की बात सोचना तो बहुत मुश्किल था। इसलिए भारतीय गुप्तचर संस्था 'स्वीप' ने चीन के प्रधानमंत्री की सुरक्षा हेतु भोलाशंकर को नियुक्त किया।
- 'स्वीप' ने हर पहलू से विचार करके निष्कर्ष निकाला है कि यदि कुछ अप्रत्याशित घटा तो उसे अपने अनमोल सदस्य से वंचित होना पड़ेगा । तुम इसे अपनी प्रशंसा न भी समझो, पर देश या 'स्वीप' के पास इससे अच्छा मैडल तुम्हें देने के लिए नहीं है। अब तुम ही देश की नाक हो, चाऊ के जीवन रक्षक हो, उसके बीमा हो । यदि अतिथि को कुछ हुआ तो तुम्हें भी होगा। उनकी मृत्यु में तुम्हारी मृत्यु है, उनके जीवन में तुम्हारा जीवन। मेरा खयाल है तुम अच्छी तरह समझ रहे होगे । तुम्हें उनकी परछाईं बनना है। हम कम से कम दुनिया को यह तो बता सकेंगे कि हमने कोई कसर उठा नहीं रखी थी । जितना कर सकते थे, किया था। देश के सबसे सक्षम जासूस को 'खपा' दिया था ।"
     उन्होंने 'खपा' शब्द पर विशेष जोर दिया। अन्दर ही अन्दर अपने इस शब्द पर वह कांप से गए थे, लेकिन बाहर उसे प्रकट नहीं होने दिया।

पण्डित भोलाशंकर ने अपना कर्तव्य को बहुत अच्छे से समझा और अपनी जान पर खेल कर भारत में आये हुये चीन के प्रधानमंत्री की रक्षा की। उनको जानलेवा हमले से बचाया।
      चीन के प्रधानमंत्री तो खैर सकुशल चीन लौट गये पर भारत के लिए यह जानना आवश्यक था कि वह कौन है जो भारत यात्रा के दौरान चीन के प्रधानमंत्री की हत्या करना चाहता है। हालांकि शक चीन के गिरोह 'लाल पंजा' पर होता है।
  इस रहस्य को जानने के लिए भोलाशंकर पाकिस्तान रवाना होता है। पाकिस्तान में बहुत कुछ रोचक और दिलचस्प घटित होता है। एक तो भोलाशंकर की मुलाकात अमेरिका के जासुस जैक से होती है जो इस अभियान में भोलाशंकर का सहयोगी होता है। द्वितीय यहाँ भोलाशंकर पर अज्ञात हमलावर हमला करते हैं और इसी मध्य उसकी मुलाकात गेसू से होती है। और पाकिस्तान के अंसारी साहब के साथ भोलाशंकर का मिलन काफी रोचक है।
  भारत से चीन यात्रा वाया पाकिस्तान होती है। जैक और भोलाशंकर जा पहुंचने हैं चीन। जहां उनके स्वागत के लिए 'लाल पंजा' के शैतान अपना खूनी पंजा फैलाये बैठे हैं।
 लेकिन जैक और भोलाशंकर अपने बुद्धिबल से हर मुसीबत से टकराते हैं और एक दिन लाल पंजा के गढ में जा घुसते हैं। 
लाल पंजा, जिसके विषय में यह भी कहा जाता है- 
"उसके हाथ से, उसके पंजे से कोई आजाद नहीं रह सकता । वहः खूनी पंजा कहीं भी पहुंच जाता है। ज़मीन के नीचे, बहुत नीचे तक, धरती के किसी भी कोने में ।"
जैक का एक और कथन पढनीय है, जो लाल पंजा के विषय में काफी कुछ बताता है।
जैक- "हमें पता चला है कि ले वान तान ने ऐसा जाल बुना है कि उसके देशवासी ही नहीं जानते वह क्या कर रहा है। वह बौद्धों, मंगोल पहरेदारों और अपनी प्रेमिकाओं से घिरा रहता है। चूंकि वह राजा है, यानी राजघराने का है, इसलिए जनता को इस पर कोई आपत्ति नहीं कि उसका हरम कितना बड़ा है और उसमें रहने वाली लड़कियां किन उपायों से वहां लाई जाती हैं। कोई यह जान ही नहीं पाता कि जो उनके इतने आदर का पात्र है वह देश का ही नहीं, विश्व का सबसे घृणित गिरोह चला रहा है। अगर कोई सूंघ भी लेता है तो वह जिन्दा नहीं रह पाता । किले में लाकर उसका सफाया कर दिया जाता है ।"

            प्रत्येक देश अपने कार्यसिद्धी के लिए गैरकानूनी तरीके अपनाता है। वह चाहे किसी देश की जासूसी हो, वहाँ पर अराजकता फैलाना हो, या कोई और गैरकानूनी कार्य हो उसके लिए कुछ खतरनाक संगठनों का सहयोग लिया जाता है। ऐसा ही कुछ इस उपन्यास में वर्णित है।
हां, कभी -कभी ऐसे खतरनाक संगठन सरकार से आगे चलते लगते हैं, उस देश में एक समानांतर सरकार भी चलाते हैं।
"एक सवाल और," भोलाशंकर ने उसका हाथ सहलाते हुए कहा, “लाल पंजा और कम्युनिस्ट सरकार के आपसी ताल्लुकात किस हद तक हैं ?'
"सौदागर और ग्राहक जैसे । वहां की सरकार खुले तौर पर इस गिरोह को कोई शह नहीं देती। लेकिन बाहरी मुल्कों में अपना काम पूरा करवाने के लिए 'ले वान' से मदद लेती है।"

कुछ और विशेष- 
'स्वीप' के 'संपादन' विभाग के विषय में रोचक जानकारी दी गयी है।
- सम्पादन विभाग । यहां किसी पत्त-पत्निका अथवा पुस्तक का सम्पादन नहीं होता, 'स्वीप' के सदस्यों पर आवश्यकतानुसार विशेष कलेवर चढ़ाया जाता है। फिल्म स्टूडियो के ग्रीन रूम से भी बढ़-चढ़- कर । वहां तो केवल रूप-सज्जा या वेश-परिवर्तन होता है, किन्तु 'स्वीप' के ग्रीन रूम में आवाज़ तक बदल दी जाती है। चाल-ढाल, तन का आकार, केश-वेश सब कुछ ज़रूरत के मुताबिक बदले जाते हैं। यदि सदस्य को पुलिस इंस्पेक्टर बनना है, तो वैसा ही सम्पादन और कहीं घंटा बदमाश वनना है तो वैसा ही मेकअप । केवल कुछ घण्टे परिश्रम किया जाता है। बाद में जब सदस्य बाहर निकलता है, तो कोई नहीं कह सकता कि अमुक व्यक्ति पुलिस इंस्पेक्टर नहीं है या कई-कई खून करने वाला हत्यारा नहीं है ।
-  अमेरिका के विषय में कहा जाता है वह हर कहीं अपनी टांग फंसाता है। भोलाशंकर भी जैक को जब यह बात कहता है तो जैक बहुत अच्छा उत्तर देता है- "चूंकि हम खतरे को पनपने नहीं देना चाहते । हम उसके अंकुर को ही कुचल देना जानते हैं।"
   उपन्यास पढते वक्त मुझे जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा की याद आयी, क्योंकि इस उपन्यास की शैली वैसी ही है। पहले भोलाशंकर का पाकिस्तान जाना और वहां अंसारी साहब ने साथ उसका व्यवहार, फिर पाकिस्तान से चीन की यात्रा, गेसू का मिलन जैसे प्रसंग जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा जी के उपन्यासों में देखने को मिलते हैं।
  उपन्यास काफी रोचक है। कहानी अंतरराष्ट्रीय जासूसी पर आधारित है। लेकिन उपन्यास अंत में चूकता सा प्रतीत होता है, क्योंकि अंत में कुछ अज्ञात लोग अचानक से भोलाशंकर के मददगार बनकर उसकी जान बचाते हैं। उपन्यास जब अपने चरम पर था, पाठक की जिज्ञासा प्रबल थी कि अब भोलाशंकर दुश्मनों से कैसे बचेगा वहां पर 'टोपी में से खरगोश' निकाल दिया।
फिर भी मनोरंजन की दृष्टि से पठनीय रचना है।

उपन्यास- मौत की घाटी में
लेखक-    चंदर (आनंदप्रकाश जैन)
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