एक माँ के दर्द की कहानी
एक हजार चौरासी वें की माँ- महाश्वेता देवी
सन् 1947 के बाद भारतीय जनता के स्वप्न बहुत थे। स्वतंत्र राष्ट्र में एक स्वतंत्र नागरिक बहुत सी इच्छाएं, स्वप्न संजोता है। आजादी, न्याय, समानता और एक खुशहाल परिवार, समृद्ध राष्ट्र। लेकिन 70 के दशक में यह स्वप्न खण्डित होने लग गये। जनता ने जो स्वतंत्र राष्ट्र से इच्छाएं रखी थी वह भ्रष्ट राजनीति की शिकार हो गयी। भारतीय युवा बेरोजगार था, आक्रोशित था और इस आक्रोश का परिणाम था आंदोलन। इंकलाब जिंदाबाद।
इस आंदोलन से उपजी विभीषिका और उस विभीषिका के शिकार हुये युवा। और उन युवाओं के परिवार और वह भी विशेष कर एक माँ के दर्द की कथा है -1084 वें की माँ।
महाश्वेता देवी बांग्ला भाषा की चर्चित रचनाकार है। 1997 में इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। इनकी रचना '1084वें की माँ' पर फिल्म का निर्माण भी हो चुका है।
प्रस्तुत उपन्यास 70 के दशक में पश्चिम बंगाल में पैदा हुये नक्सलवाद आंदोलन को आधार बना कर लिखा गया यह उपन्यास बहुत चर्चित रहा है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि नक्सलवाद पर आधारित है लेकिन कहानी एक माँ के दर्द की है जिसका बेटा नक्सलवाद की भेंट चढ चुका है।
कहानी है सुजाता की। सुजाता एक मध्यवर्गीय धनाढ्य परिवार से संबंध रखती है। उसका बेटा व्रती नक्सलवाद से संबंध रखता था। और एक दिन वह नक्सलवाद विरोधी लोगों द्वारा मारा गया। व्रती एक जिंदा युवा से एक मृ्तक संख्या 1084 हो गया। परिवार ने व्रती का अस्तित्व ही खत्म कर दिया की कहीं लोगों को पता न चल जाये की उनका बेटा नक्सलवाद से संबंध रखता था। पर एक माँ अपने पुत्र को कैसे भूल सकती है।
दो साल बाद, ठीक उसी दिन जब व्रती की पुण्यतिथी थी। व्रती की बेटी तुली की सगाई थी। सब की स्मृति से व्रती गायब था पर सुजाता वह दिन व्रती की यादों के साथ बिताती है। वह उन लोगों से मिलती है जो व्रती के साथ थे, जहाँ व्रती ने अंतिम समय बिताया था, उसकी सहयोगी नंदिनी के साथ।
सुजाता जानना चाहता है की आखिर व्रती नक्सलवाद से क्यों जुड़ा। सुजाता व्रती के अस्तित्व के महसूस करती है। उसके अस्तित्व की तलाश में भटकती है।
सुजाता का जीवन एक भारतीय नारी का है। जो हर दुख-दर्द को सहन कर चुप रहती है।- सुजाता का अस्तित्व छाया की तरह हो गया था—अनुगता का, अनुगामिनी का, नीरव, स्वत्वहीन अस्तित्व।
वहीं व्रती के दोस्त समु की माँ का भी चित्रण भी बहुत मार्मिक है। जिसका एकमात्र पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गया है। सुजाता उस से मिलती है, दोनों के दुख सांझे है, दोनो का मिलना, दोनों को शांति प्रदान करता है।
अपनी खोज-भटकाव और व्रती के अस्तित्व की तलाश में निकली एक माँ को पता चलता है- व्रती तो इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं टिकता। उसका अपराध बस इतना ही था कि इस समाज, इस व्यवस्था पर से उसका विश्वास उठ गया था। उसे अहसास हुआ था कि जिस रास्ते पर समाज, राष्ट्र चल रहा है, उस रास्ते से मुक्ति नहीं मिलेगी। अपराध उसका इतना ही था कि उसने सिर्फ नारे लिखे ही नहीं, उन नारों पर विश्वास भी किया था! दिव्यनाथ और ज्योति ने व्रती की मुखाग्नि तक नहीं की! व्रती क्या इतना समाज-विरोधी था कि उस-जैसों की लाश काँटापुकूर में लावारिस लाशों के साथ पड़ी रहे? रात होने पर पुलिस के पहरे में गाड़ी पर लादकर श्मशान ले जाई जाए और फिर उसे फूँक दिया जाए?
'1084 वे की माँ' दो बातों को रेखांकित करती है। एक नक्सलवाद और दूसरा उस दौर में खोये हुये लोगों के परिवार के दर्द को। उपन्यास में नक्सलवाद पृष्ठभूमि में है उसके कारणों आदि का चित्रण नहीं है। क्योंकि उपन्यास मूलत: एक माँ के दर्द का जीवंत वर्णन है।
उपन्यास- 1084 वें की माँ
लेखिका- महाश्वेता देवी
एक हजार चौरासी वें की माँ- महाश्वेता देवी
सन् 1947 के बाद भारतीय जनता के स्वप्न बहुत थे। स्वतंत्र राष्ट्र में एक स्वतंत्र नागरिक बहुत सी इच्छाएं, स्वप्न संजोता है। आजादी, न्याय, समानता और एक खुशहाल परिवार, समृद्ध राष्ट्र। लेकिन 70 के दशक में यह स्वप्न खण्डित होने लग गये। जनता ने जो स्वतंत्र राष्ट्र से इच्छाएं रखी थी वह भ्रष्ट राजनीति की शिकार हो गयी। भारतीय युवा बेरोजगार था, आक्रोशित था और इस आक्रोश का परिणाम था आंदोलन। इंकलाब जिंदाबाद।
इस आंदोलन से उपजी विभीषिका और उस विभीषिका के शिकार हुये युवा। और उन युवाओं के परिवार और वह भी विशेष कर एक माँ के दर्द की कथा है -1084 वें की माँ।
महाश्वेता देवी बांग्ला भाषा की चर्चित रचनाकार है। 1997 में इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। इनकी रचना '1084वें की माँ' पर फिल्म का निर्माण भी हो चुका है।
प्रस्तुत उपन्यास 70 के दशक में पश्चिम बंगाल में पैदा हुये नक्सलवाद आंदोलन को आधार बना कर लिखा गया यह उपन्यास बहुत चर्चित रहा है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि नक्सलवाद पर आधारित है लेकिन कहानी एक माँ के दर्द की है जिसका बेटा नक्सलवाद की भेंट चढ चुका है।
कहानी है सुजाता की। सुजाता एक मध्यवर्गीय धनाढ्य परिवार से संबंध रखती है। उसका बेटा व्रती नक्सलवाद से संबंध रखता था। और एक दिन वह नक्सलवाद विरोधी लोगों द्वारा मारा गया। व्रती एक जिंदा युवा से एक मृ्तक संख्या 1084 हो गया। परिवार ने व्रती का अस्तित्व ही खत्म कर दिया की कहीं लोगों को पता न चल जाये की उनका बेटा नक्सलवाद से संबंध रखता था। पर एक माँ अपने पुत्र को कैसे भूल सकती है।
दो साल बाद, ठीक उसी दिन जब व्रती की पुण्यतिथी थी। व्रती की बेटी तुली की सगाई थी। सब की स्मृति से व्रती गायब था पर सुजाता वह दिन व्रती की यादों के साथ बिताती है। वह उन लोगों से मिलती है जो व्रती के साथ थे, जहाँ व्रती ने अंतिम समय बिताया था, उसकी सहयोगी नंदिनी के साथ।
सुजाता जानना चाहता है की आखिर व्रती नक्सलवाद से क्यों जुड़ा। सुजाता व्रती के अस्तित्व के महसूस करती है। उसके अस्तित्व की तलाश में भटकती है।
सुजाता का जीवन एक भारतीय नारी का है। जो हर दुख-दर्द को सहन कर चुप रहती है।- सुजाता का अस्तित्व छाया की तरह हो गया था—अनुगता का, अनुगामिनी का, नीरव, स्वत्वहीन अस्तित्व।
वहीं व्रती के दोस्त समु की माँ का भी चित्रण भी बहुत मार्मिक है। जिसका एकमात्र पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गया है। सुजाता उस से मिलती है, दोनों के दुख सांझे है, दोनो का मिलना, दोनों को शांति प्रदान करता है।
अपनी खोज-भटकाव और व्रती के अस्तित्व की तलाश में निकली एक माँ को पता चलता है- व्रती तो इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं टिकता। उसका अपराध बस इतना ही था कि इस समाज, इस व्यवस्था पर से उसका विश्वास उठ गया था। उसे अहसास हुआ था कि जिस रास्ते पर समाज, राष्ट्र चल रहा है, उस रास्ते से मुक्ति नहीं मिलेगी। अपराध उसका इतना ही था कि उसने सिर्फ नारे लिखे ही नहीं, उन नारों पर विश्वास भी किया था! दिव्यनाथ और ज्योति ने व्रती की मुखाग्नि तक नहीं की! व्रती क्या इतना समाज-विरोधी था कि उस-जैसों की लाश काँटापुकूर में लावारिस लाशों के साथ पड़ी रहे? रात होने पर पुलिस के पहरे में गाड़ी पर लादकर श्मशान ले जाई जाए और फिर उसे फूँक दिया जाए?
'1084 वे की माँ' दो बातों को रेखांकित करती है। एक नक्सलवाद और दूसरा उस दौर में खोये हुये लोगों के परिवार के दर्द को। उपन्यास में नक्सलवाद पृष्ठभूमि में है उसके कारणों आदि का चित्रण नहीं है। क्योंकि उपन्यास मूलत: एक माँ के दर्द का जीवंत वर्णन है।
उपन्यास- 1084 वें की माँ
लेखिका- महाश्वेता देवी
उत्तम साहित्यक रचना
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