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Monday, 9 October 2017

66. पहरेदार- अनिल मोहन

एक उपन्यास- दो कहानियाँ, एक पूरी, एक अधूरी।

अनिल मोहन द्वारा लिखित उपन्यास पहरेदार एक ऐसा उपन्यास है जिसमे दो‌ अलग-अलग कहानियाँ है जो की देवराज चौहान के कारण एक बार आपस में मिलती हैं और फिर अलग अलग हो जाती हैं।
दोनों कहानियाँ की विशेषता ये है की मुख्य कहानी जो की एक इंस्पेक्टर सूरज यादव पर केन्द्रित है तो इसी उपन्यास में संपूर्ण हो जाती है वहीं देवराज चौहान की कहानी अधूरी रह जाती है।

    पहरेदार एक ऐसे जाबांज इंस्पेक्टर की कहानी है जो सत्य के लिए गृहमंत्री तक को गोली मारने से पीछ नहीं हटता।
CBI का एक एजेंट सूरज यादव उन ‌लोगों की तलाश में है जो भारत की आंतरिक ‌सुरक्षा से जुङी महत्वपूर्ण फाइलें अन्य देशों तक पहुंचाते हैं।
इसी सिलसिले में सूरज यादव जा टकराता है देश के गृहमंत्री से भी जा कटराता है। सूरज यादव की जिंदगी का यही निर्णय, गृहमंत्री से टकराना उसके जीवन में तूफान खङा कर देता है।
  सूरज यादव गृहमंत्री पर इल्जाम तो लगा देता है पर उसे सही साबित नहीं कर पाता। इस चक्कर में उसकी नौकरी पर भी तलवार लटक जाती है और उसके मित्र इंस्पेक्टर मेहता की जान भी चली जाती है।
दूसरी तरफ गृहमंत्री से छीने गये महत्वपूर्ण कागजात भी सूरज मेहता डकैती मास्टर देवराज चौहान को गलतफहमी में सौंप देता है।
  यही से कहानी एक नया मोङ लेती है और सूरज यादव के इंस्पेक्टर मित्र की जान भी।
  अपने मित्र की मौत का बदला लेने, स्वयं को बेगुनाह साबित करने और असली मुजरिम को सामने लाने के लिए सूरज यादव जा टकराता है कानून के दुश्मनों से।
द्वितीय कहानी है देवराज चौहान द्वारा एक गोल्ड वाॅल्ट लूटने की लेकिन वह कहानी इस उपन्यास में पूर्ण नहीं होती‌।
"एक वजह से गोल्ड वाॅल्ट में आज तक  डकैती करने की किसी की हिम्मत नहीं हुयी। और वह वजह थी बीस फीट की गैलरी। सारी सुरक्षा व्यवस्था तोङकर अगर गोल्ड वाॅल्ट के भीतर पहुंच भी जाया जाए तो बीस फीट की गैलरी रूपी मौत के रास्ते को पार करके वाल्ट के उस दरवाजे तक नहीं पहुंचा जा सकता, जिसके पास करोङों अरबों की दौलत मौजूद है।"-(पृष्ठ-65)

जासूस की जिंदगी को लेकर बहुत अच्छी बात कही है-
"हम लोग जिस धंधे में हैं, उसमें तभी तक जिंदगी बची रह सकती है जब मन की बात मन में रहे। सीक्रेट एजेंट उस वक्त तलवार की धार पर बैठता है जब उसकी मूवमेंट की खबर दुश्मनों को मिलने लगती है।"- (पृष्ठ-132)

उपन्यास में कमी
- उपन्यास में अगर गलतियों की  बात करें तो बहुत ज्यादा गलतियाँ नजर आती है जो एक अच्छी कहानी को भी खराब कर देती है।
1. उपन्यास को जबरन देवराज चौहान सीरीज बनाने की कोशिश की गयी है।
2. उपन्यास में दो कहानियाँ है। मुख्य सूरज यादव की व दूसरी देवराज चौहान की।
सूरज यादव की कहानी इस उपन्यास में खत्म हो जाती है, वहीं देवराज चौहान की कहानी अधूरी रह जाती है।
3. उपन्यास में खलनायक का किरदार बहुत कम व बहुत कमजोर दिखाया गया है ।
गृहमंत्री से दुश्मनी करने वाला एक सामान्य सा  व्यक्ति बन कर रह गया।
4. सूरज यादव CBI का एक होनहार एजेंट है, पर वह गृहमंत्री वाले केस में निर्णय ऐसे लेता है जैसे कोई अतिउत्साहित नव युवक हो।
5. उपन्यास के अंत में हमशक्ल वाला जो किस्सा दिखाया गया है वह बिलकुल ही उचित नहीं लगता।
एक देश का गृहमंत्री, वह भी नकली हो, किसी का हमशक्ल हो और शासन चला रहो हो,  तो क्या वहाँ का प्रशासन, सरकार असली नकली में भेद ही नहीं कर सकती।

     अनिल मोहन का पहरेदार उपन्यास का द्वितीय भाग सुलग उठा बारूद है, लेकिन दोनों उपन्यासों में मुझे आपस में कोई तारतम्य नजर नहीं आता।
  जहां पहरेदार में सूरज यादव की कहानी खत्म हो जाती वहीं देवराज चौहान की कहानी सुलग उठा बारूद में समाप्त होती है।

समग्र दृष्टि से देखे तो कहानी के स्तर पर प्रस्तुत उपन्यास बहुत रोचक है। रोचकता भी ऐसी की पाठक कहीं भी बोरियत महसूस नहीं करता।
यहाँ तक की देवराज चौहान के आगमन से उपन्यास में रोचकता भी बढ जाती है।
 

एक पठनीय उपन्यास है। अनिल मोहन व  देवराज चौहान के प्रशंसकों के लिए यह एक पठनीय उपन्यास है।

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उपन्यास- पहरेदार
लेखक- अनिल मोहन
प्रकाशक- राजा पॉकेट बुक्स- दिल्ली
पृष्ठ- 238
मूल्य- 20₹

1 comment:

  1. शायद जहां तक मुझे मालूम है दूरी कहानी का कुछ पार्ट हमला मेंमिलता है पर उसमे भी अधूरा है।
    मैं भी भेड़आ को आगे पढ़ना चाहता हूं

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