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Tuesday, 23 March 2021

426. उपसंहार - काशीनाथ सिंह

उत्तर महाभारत की कृष्णकथा
उपसंहार - काशीनाथ सिंह

कुरुक्षेत्र के मैदान में 'सत्य की असत्य पर विजय' के उदघोष के साथ महाभारत का युद्ध खत्म हो गया। और खत्म हो गये असख्य लोग। उस युद्ध के पश्चात क्या हुआ? यही उपसंहार है।
      हिंदी साहित्य में काशीनाथ सिंह का नाम एक सशक्त साहित्यकार के रूप में उपस्थित है। 'काशी का अस्सी' जैसी चर्चित रचना उनके नाम दर्ज है। लेकिन प्रस्तुत रचना एक अलग ही विषय पर आधारित है। 

      हालांकि मेरे द्वारा काशीनाथ सिंह जी को पढने का यह प्रथम अवसर है, और वह भी एक उत्कृष्ट रचना के साथ‌। मैं इस रचना को पढने के पश्चात स्तब्ध सा रह गया था, मन शून्य सा हो गया था।
  प्रस्तुत रचना 'उपसंहार' महाभारत के छत्तीस वर्ष बीत जाने के पश्चात की कथा है। जहां पाण्डवों की अपनी समस्याएं हैं, यादवों- द्वारका की अपनी समस्याएं हैं और श्री कृष्ण एक सामान्य मनुष्य की तरह पूर्णतः विवश नजर आते हैं। 
   जहां पाण्डवों से सुशासन की उम्मीद थी, लेकिन वह उम्मीद पूरी होती नजर नहीं आती।  युधिष्ठिर परिस्थितियों को सम्भालने में असमर्थ नजर आते हैं और शेष पाण्डव भाई युधिष्ठिर से इस बात से  नाराज भी हैं।
     हालांकि इस रचना में पाण्डव प्रसंग नाममात्र ही है। यह कथा मूलतः श्री कृष्ण पर आधारित है, जब वे महाभारत युद्ध के पश्चात द्वारका लौट आते हैं और सन्न-सन्न महाभारत युद्ध को 36 वर्ष बीत जाते हैं।
    एक कुशल रणनीतिकार के रूप मे विख्यात श्री कृष्ण द्वारका के बिड़गते शासन और खत्म होते सौहार्द को संभाल नहीं पाते। एक सभा में भी यह बात उठती है- सभा में उन्होंने ये बातें खुलकर बताईं। कहा कि जिस नैतिकता, मूल्यों, अनुशासन, प्रेम, सौहार्द के लिए द्वारका की ख्याति रही है, वह आज संकट में है।
   इस संकट काल में श्री कृष्ण पूर्णतः विवश नजर आते हैं। उसका एक कारण यह भी है कि उन्हें कहीं न कहीं यह भी लगता है कि वे महाभारत के युद्ध को रोक सकते थे। लेकिन अब वक्त बीत चुका है, अब तो उस युद्ध का दंश झेलना ही है।
   बलराम भी कृष्ण पर युद्ध को लेकर आक्षेप करते हैं। द्वारका से लगता समुद्र भी श्री कृष्ण से रुष्ट नजर आता है।
   वहीं कृष्ण के मन में बार-बार एक ही प्रश्न उठता है-
यतो कृष्णस्ततो धर्म: यतो धर्मस्ततो जय:’ यानि जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं जय है। यह मैंने सुना था। इधर बार-बार यही प्रतिध्वनि मेरे कानों में गूँज रही है कि क्या सचमुच मैंने महाभारत में अठारह दिन धर्माचरण किया था, जिससे विजय मिली?’
        उपन्यास में श्री की आठ पत्नियों का वर्णन भी है जिनके नाम हैं-  उनकी नजर दोनों स्तम्भों की ओर गई। चार रानियाँ इस तरफ, चार रानियाँ उस तरफ। और ये रानियाँ कोई और नहीं उन्हीं की पत्नियाँ थीं। रुक्मिणी, कालिन्दी, मित्रविन्दा, सत्या सिंहद्वार के बाएँ स्तम्भ के आगे और सत्यभामा, जाम्बवती, भद्रा, सुदत्ता दाएँ स्तम्भ के आगे।

  वहीं श्री कृष्ण द्वारा सोलह हजार लड़कियों के उद्धार के पश्चात उनकों पत्नियाँ तो स्वीकार कर लिया गया और द्वारका में बसा दिया लेकिन उनके कारण फैला व्यभिचार भी एक अलग समस्या खड़ी करता है, और व्यभिचार मेें कृष्ण के पुत्र भी शामिल हैं। और श्री कृष्ण मूक बन कर तमाशा देखने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते।
     इस रचना में कृष्ण जी की विवशता का इतना मार्मिक चित्रण है की पाठक चेतना शून्य सा हो जाता है। क्योंकि श्री कृष्ण भारतीय जनमानस में ईश्वर रूप में स्तुत्य है लेकिन यहाँ वह ईश्वर भी 'कर्म' के कारण विवश है। यह विवशता प्रत्येक जगह नजर आती है‌। उपन्यास में श्री कृष्ण ईश्वर रूप में नहीं एक सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रित किये गये हैं, जो वृद्धावस्था की ओर अग्रसर है और अपने बीत चुुक समय को स्मरण करते हैं 'सही- गलत' की विवेचना करते हैं। क्या वे हर जगह सही थे। महाभारत जैसे युद्ध में असंंख्य मनुष्यों की बलि देने का कृत्य को क्या सही ठहराया जा सकता है? आखिर महाभारत युद्ध से क्या मिला, पाण्डव तो सुशासन करने में असफल रहे।
    इस रचना में ऋषि दुर्वाशा का प्रसंग बहुत रोचक है। श्री कृष्ण भी सोचते हैं - दुर्वासा के बारे में सुना जरूर था, देखा नहीं था। वे अन्य ऋषियों से भिन्न महाक्रोधी थे। उनका कहीं भी जाना अमंगल सूचक माना जाता था। सभी देवी–देवता उनसे थर–थर काँपते थे। वे किस बात पर प्रसन्न होंगे और किस बात पर नाराज, कहना मुश्किल था। वे वरदान कम, शाप ही अधिक देते थे। कोई नहीं चाहता था कि वे उसके यहाँ दिखाई पड़े। वे जहाँ–जहाँ गए, कुछ न कुछ अनिष्ट ही करके आए।
     और यह सच भी होता है। श्री कृष्ण और रुक्मिणी पर संकट भी आता है, यह प्रसंग कितना सत्य है यह तो नहीं पता पर पर दुर्वाशा ऋषि द्वारा कृष्ण-रुक्मिणी को नग्न होने का आदेश देना बहुत ही अजीब सा प्रतीत होता है और उस पर नग्न रुक्मिणी को गाड़ी में जोतना।
ऐसे प्रसंग पढ कर मन उदास सा हो उठता है।

  'उससंहार' एक प्रश्न है। एक विवश मनुष्य का जीवन के अंतिम काल में स्वयं का स्वयं द्वारा आंकलन है।
- क्या महाभारत का युद्ध वास्तव में 'न्याय' के साथ लड़ा गया था?
- क्या यह युद्ध रोका जा सकता था?
- आखिर युद्ध के परिणाम क्या रहे?
- और कैसा रहा युद्ध पश्चात श्री कृष्ण का  जीवन?

   अगर आप महाभारत जैसे प्रसंगों को पढने में रुचि रखते हैं, अगर आप श्री कृष्ण जी के जीवन के अंतिम दिनों को समझना चाहते हैं तो काशीनाथ सिंह जी द्वारा रचित 'उपसंहार' अवश्य पढें।।

उपन्यास - उपसंहार (उत्तर महाभारत की कृष्णकथा)
लेखक -   काशीनाथ सिंह
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन


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