मर्डर आॅन वैलेंटाइंस नाइट- विजय कुमार बोहरा
मर्डर मिस्ट्री
आधी रात को सुनसान राह पर कत्ल हुआ। न कोई गवाह था और न कोई सबूत। ऐसी स्थिति में कातिल का पता लगना बहुत ही मुश्किल काम है। कातिल का पता तभी चलता है जब कोई सबूत या गवाह हो, लेकिन यहाँ तो कुछ भी न था। बस एक लाश थी...डिटेक्टिव साकेत अग्निहोत्री के समक्ष यही चुनौती थी की वह इस लाश के हत्यारे को खोजे तो कैसे खोजे।
राजस्थान के बेगूँ (चित्तौड़गढ़) के युवा उपन्यासकार विजय कुमार बोहरा द्वारा लिखा गया 'मर्डर आॅन वैलेंटाइंस नाइट' उनका प्रथम उपन्यास है। वैसे विजय जी online साइट आदि पर लिखते रहते हैं। इस उपन्यास की शुरुआत भी एक online प्लेटफॉर्म से ही हुयी थी जो बाद में हार्डकाॅपी में भी प्रकाशित हुआ।
उपन्यास पढते वक्त कहीं से भी ऐसा नहीं लगता की यह कोई अपरिपक्व रचना है या लेखक का प्रथम उपन्यास है।
करीब 9 बजे जैसे ही साकेत तैयार हुआ, उसके मोबाइल पर एक कॉल आयी।
“हैलो !” कॉल रिसीव करते हुए साकेत बोला।
“हैलो ! अग्निहोत्री सर बोल रहे हैं ?” फोन के उस तरफ से एक महिला स्वर उभरा, “डिटेक्टिव साकेत अग्निहोत्री !” “बोल रहा हूँ, आप कौन ?”
“सर, मैं रागिनी बोल रही हूँ।”
“कौन रागिनी ?”
“आप मुझे नहीं जानते सर, लेकिन मैं आपको जानती हूँ।” “कैसे ?”
“जैसे पूरा शहर जानता है।”
“मैं समझा नहीं !”
“सर, आप शहर के सबसे अच्छे प्राइवेट डिटेक्टिव हैं ! मुझे आपकी मदद की जरूरत है ।”
“ओह !” साकेत को अब कुछ-कुछ समझ आया, “तो क्लाइंट हो !”
“जी सर !” रागिनी बोली, “आप ऐसा कह सकते हैं।” “कहिये, क्या मदद कर सकता हूँ आपकी?”
“फोन पर नहीं बता सकती। क्या हम कहीं मिल सकते हैं?” “ओके, मेरे घर आ जाओ।”
“ठीक है सर ! मैं बस आधे घंटे में पहुँचती हूँ।” (उपन्यास अंश)
पुलिस जब किसी नतीजे पर न पहुंच पायी तो रागिनी ने प्राइवेट डिटेक्टिव साकेत अग्निहोत्री का दरवाजा खटखटाया। साकेत के लिए भी यह केस एक पहेली की तरह था। क्योंकि वहाँ न तो कोई सबूत था और न ही कोई गवाह। जिसके बल पर कार्यवाही आगे बढाई जा सके।
साकेत अग्निहोत्री के समक्ष एक ही समस्या थी जो पुलिस के समक्ष थी।
“हमारे पास न कोई दमदार सबूत है, न कोई गवाह। ऐसी स्थिति में कातिल का पता लगाने में कुछ वक्त तो लगेगा ही ।”
“कितना?”
“रागिनी जी ! हलुआ तो बनाना है नहीं, जो आपको बता दिया जाये कि कितने वक्त में बन जायेगा। कातिल का पता लगाना है और वो भी उन हालातों में, जबकि न हमें कातिल का पता है, न कोई दमदार सबूत है और न ही कोई गवाह है।”
क्या ऐसी परिस्थितियों में साकेत अग्निहोत्री इस कत्ल की पहेली को हल कर पाया?
उपन्यास का सबसे रोचक बिंदु यही है।
किसी भी घटना के विषय में साक्षी और सबूत आवश्यक होते हैं, लेकिन यहाँ इस कत्ल के विषय में ऐसा कुछ भी नहीं था जो कातिल के विषय में संकेत का काम करता हो।
विजय बोहरा जी ने एक अच्छी कहानी का चुनाव किया है और फिर उसे बहुत अच्छे ढंग से विस्तार दिया है। पाठक के मस्तिष्क में सबसे पहले यही विचार आता है की अब कहानी आगे कैसे बढेगी। बिना तथ्यों के कातिल को कैसा तलाशा जायेगा। लेकिन डिटेक्टिव साकेत अग्निहोत्री अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से इस पहेली को हल करने में सफल होता है।
कहानी कत्ल से काॅलेज की तरफ घूमती हैं, जहाँ रीचा और आकाश भी पढते हैं। यहाँ काॅलेज से दो लड़कियां गायब हो जाती हैं। कुछ और घटनाएं/पहेलियां/सवाल भी थी जिनके हल खोजने थे।
साकेत के मस्तिष्क में सवालों के झंझावात उठ रहे थे । जवाब जानने की तलब बढ़ती जा रही थी । लेकिन जवाब थे कहाँ ? थे तो सिर्फ सवाल !
और इन सवालों को हल कर के ही असली अपराधी तक पहुंचा जा सकता था।
मैंने लोकप्रिय जासूसी साहित्य के काफी उपन्यास पढे हैं, जिनमें कातिल या किसी अन्य पात्र को साइको दिखाया जातस है, लेकिन उन उपन्यासों में साइक्लोजी(मनोविज्ञान) का चित्रण नहीं होता।
उपन्यासकार विजय जी का यह अच्छा प्रयोग है की यहाँ एक विद्यार्थी सौरभ के माध्यम से मनोविज्ञान का अच्छा चित्रण किया गया है। यह पात्र प्रभावित भी करता है- “सौरभ, जो खुद को समाजसेवी बताता है । साइकोलॉजी में हद से ज्यादा रुचि रखने वाले इस शख्स का तो जीवन ही साइकोलॉजी से सरोबार लगता है।"
जैसे मानव व्यवहार पर लिखा गया देखें-
“हमारा व्यवहार ! मानव व्यवहार ही उसके समूचे वज़ूद, उसके व्यक्तित्त्व के लिए ज़िम्मेदार है । और जानती हो यह मानव व्यवहार किससे नियंत्रित होता है ? चौबीसों घंटे, यहाँ तक कि सोते वक़्त भी हम जो व्यवहार करते हैं, वो किससे नियंत्रित होता है ? जानती हो हमारे व्यवहार का रिमोट कंट्रोल किसके हाथ में होता...।"
एक और उदाहरण देखें-
सौरभ हँसते हुए एक बार फिर दार्शनिक हो उठा, “इंसान हमेशा इसी खुशफहमी में रहता है कि जो कुछ वो देख रहा है, सोच रहा है, समझ रहा है, सिर्फ वही सच है और बाकी सब झूठ ! लेकिन कई बार वह ग़लत साबित हो जाता है और इसकी वजह यह होती है कि वो हमेशा वही देखता है जो वह देखना चाहता है, वह नहीं देखता जो हकीकत में उसे देखना चाहिये ।”
उपन्यास में डिटेक्टिव का बार-बार सिम कार्ड बदलना कुछ अप्रासंगिक सा प्रतीत होता है और अंत तक इस कारण की कोई वजह दृष्टिगत नहीं होती।
इसके अतिरिक्त उपन्यास रोचक है। उपन्यास में मर्डर मिस्ट्री है, रहस्य है और रोमांच है, प्रेम है,नफरत है, समस्या है तो हल भी है।
अगर आप मर्डर मिस्ट्री उपन्यास पसंद करते हैं तो यह उपन्यास आप पढ सकते हैं।
उपन्यास- मर्डर आॅन वैलेंटाइंस नाइट
लेखक- विजय कुमार बोहरा
संपर्क- vijaykumarvj369@gmail.com
प्रकाशक - सूरज पॉकेट बुक्स
प्रकाशन- 21 नवंबर 2020
Very nice
ReplyDeleteThanks
Deleteरोचक किताब के प्रति उत्सुकता जगाता लेख। जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी।
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