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Tuesday, 19 January 2021

415. ढोलण कुंजकली- यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'

 नारी के शोषण की करुणगाथा
ढोलण कुंजकली- यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'

  शोषक और शोषित का संघर्ष अनादि काल से चला आ रहा है। और समय के साथ -साथ इसमें कुछ और भी बुराईयां शामिल होती चली गयी। शोषक-शोषित, अमीर-गरीब और जातिवाद जैसे बुराईयों ने भारतीय समाज के अपूरणीय क्षति पहुंचाई है।
     रजवाड़ों‌ के समय में तो हाल बद से बदतर थे। एक तो गरीब दूसरा दूसरा शोषण और फिर जातिवाद का जहर। और इस कुचक्रें अगर किसी गरीब दलित की औरत फंस गयी तो उसका बाहर निकला मुश्किल था और अगर वह सौन्दर्य से परिपूर्ण हुयी तो उसका आंतरिक जीवन दलदल सा हो जाता था।
   यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' ने राजस्थान के परिवेश और भारतीय नारी की स्थिति पर बहुत प्रासंगिक रचनाएं लिखी हैं। जथसे हजार घोडो़ का सवार, हूं गोरी किण पीव री, जमारो, ढोलण कुंजकली आदि।
    इनकी रचनाओं में नारी की विपन्न स्थिति, शोषित वर्ग का चित्रण, ब्रिटिश काल का अत्याचार आदि का बखूबी चित्रण मिलता है। इनकी रचनाएं काल्पनिक होते हुये भी यथार्थ के समीप होती हैं।  
ढोलण कुंजकली - यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'
   प्रस्तुत रचना 'ढोलण कुंजकली' एक ऐसी ही रचना है जो दलितवर्ग की स्त्री की मार्मिक गाथा को प्रस्तुत करती है। "कुंज की कली को कोई भी तोड़ मरोड़ सकता है। वही दसा मेरी है।" (पृष्ठ-105) रूपाली ढोली परिवार से है। उसके समाज का काम नाच-गा कर अपनी आजीविका चलाना है। एकदम दरिद्र जीवन जीने वाली यह जाती अपने यजमान की खुशी में ही खुश है। इसी रुपाली की बेटी कुंजकली अपूर्व सौन्दर्य वाली है। यही सौन्दर्य उसके जीवन में अभिशाप बन जाता है। वह कहती है
"...हमारी सारी जाति दलिद्दरता में जी रही है। हमारे लोग-लुगाइयों को न चोखा कपड़ा मिलता है....। कभी किसी के घर चुल्हा नहीं जलता और कभी किसी के घर का।  मरदों कर लिए थोड़ा बहुत काम है। कभी कभास तीज-त्योहारों पर ढोली लोगों को काम मिलता है...।(पृष्ठ-75)
          सामंती व्यवस्था में गरीब-दलित और वह भी सुंदर स्त्री पर हर कोई नजर मैली करता है। ठाकुर गोपीचंद कुंजकली के माध्यम से अपनी हवस और राजनैतिक इच्छाएं पूरी करना चाहता है। इसलिए वह उसे अपने पति से विमुख कर,कुंजकली के स्वप्नों‌ को रौंद कर उसे राजा फतेह सिंह की 'पड़दायतण' बना देता है।
        लेकिन कुंजकली का भाग्य भौतिक रूप से चाहे ऐश्वर्ययुक्त नजर आता हो लेकिन हृदय से वह भग्न हो चुकी थी। राजा की हवस और राजनैतिक महत्वाकांक्षा उसे 'पड़दायतण' भी नहीं रहने देती। कुंजकली में आक्रोश है, गुस्सा है, दर्द है पर वह जाहिर नहीं कर पाती बस अंदर ही अंदर घुट कर रह जाती है।-"दलित जाति के लोगों का आक्रोश-विद्रोह आत्मा की गहराइयों में ही बवण्डर की तरह घुमड़ता रहता है। सामन्ती व्यवस्था में छोटा इंसान कीडे़ से भी बदतर होता था।(पृष्ठ-69)
   लेकिन वहीं बाबा देवोदास जैसे लोग भी हैं जो इस सामंती व्यवस्था के विरुद्ध संघर्षरत हैं।-"मेरे जैसे हजारों इंसान हैं जो क्रांति लायेंगे। इस व्यवस्था और शोषण को मिटाने के लिए आखिरी सांस तक लड़ते रहेंगे।"(पृष्ठ-125)
स्वयं बाबा भी अपने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से शासकवर्ग को अपने क्रांतिकारी तेवर दिखा देता है। यह इंकलाब उसकी अनुयायी कुंजकली में भी उभरते हैं।
उपन्यास के कुछ महत्वपूर्ण संवाद-
"लालच ने सदा सच्चाई को मिटाया है और रिश्वत ने सदा सत्य का गला घोंटा है और रिश्वत ने सदा सच का गला घोटा है।"(पृष्ठ-35)
"धरम तो बड़े आदमियों की चीज है। अपने लिए तो सबसे बड़ा धरम है- इस मादरकाढ पेट की लाय बुझाना।(पृष्ठ-66)
   उपन्यास में राजस्थानी सामंती व्यवस्था का चित्रण के साथ यहाँ के रीति रिवाज, संस्कृति, लोक गीत आदि का वर्णन भी पठनीय है।
उपन्यास में राजस्थानी आंचलिक शब्दावली का प्रयोग इसके सौन्दर्य में श्रीवृद्धि करता है। लेखक महोदय ने कहीं भी राजस्थानी वाक्य प्रयुक्त नहीं किया वह कुछ आवश्यक शब्दों का प्रयोग किया है, जिससे राजस्थान की सौंधी खुशबू भी आती है और गैर राजस्थानी भाषी को समझने में परेशानी नहीं होती।
      स्त्री के दर्द, उसके शोषण, जातिवाद, गुलामी के आदि रजवाड़े तथा स्वतंत्रता प्रेमियों के संघर्ष को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। औरत के शोषण को का चित्रण बहुत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हुआ है।
ढोलण कुंजकली' उपन्यास सामंती व्यवस्था, स्त्री पर अत्याचार, दतिलवर्ग के शोषण और संघर्ष का जीवंत चित्रण है।
उपन्यास- ढोलण कुंजकली
लेखक- यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'
प्रकाशन- पाण्डुलिपि प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ-136

1 comment:

  1. किताब रोचक लग रही है। पढ़ने की कोशिश रहेगी।

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