मुख्य पृष्ठ पर जायें

Tuesday 24 March 2020

281. चित्रलेखा- भगवतीचरण वर्मा

समीक्षा पाप और पुण्य की
चित्रलेखा- भगवतीचरण वर्मा, उपन्यास
 


श्वेतांक ने पूछा—“और पाप !”
महाप्रभु रत्नाम्बर मानो एक गहरी निद्रा से चौंक उठे। उन्होंने श्वेतांक की ओर एक बार बड़े ध्यान से देखा—“पाप ? बड़ा कठिन प्रश्न है वत्स ! पर साथ ही बड़ा स्वाभाविक ! तुम पूछते हो पाप क्या है !" इसके बाद रत्नाम्बर ने कुछ देर तक कोलाहल से भरे पाटलिपुत्र की ओर, जिसके गगनचुम्बन करने का दम भरनेवाले ऊँचे-ऊँचे प्रासाद अरुणिमा के धुँधले प्रकाश में अब भी दिखलाई दे रहे थे, देखा—“हाँ, पाप की परिभाषा करने की मैंने भी कई बार चेष्टा की है, पर सदा असफल रहा हूँ। पाप क्या है, और उसका निवास कहाँ है; यह एक बड़ी कठिन समस्या है, जिसको आज तक नहीं सुलझा सका हूँ। अविकल परिश्रम करने के बाद, अनुभव के सागर सें उतराने के बाद भी जिस समस्या को नहीं हल कर सका हँ, उसे किस प्रकार तुमको समझा दूँ ?”

भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखा गया उपन्यास 'चित्रलेखा' मुख्यतः पाप-पुण्य को रेखांकित है। आखिर पाप क्या है और पुण्य क्या ह? यह स्वाभाविक सा प्रश्न है और इसे आधार लिखा गया यह उपन्यास पठनीय और विचारणीय भी है।
महाप्रभु रत्नाकर के दो शिष्य शिक्षा पूर्ण करने पर अपने गुरु से प्रश्न पूछते है कि पाप और पुण्य क्या है?
     श्वेतांक और विशाल को इसी बात को पता लगाने के लिए महाप्रभु दोनों को दो अलग-अलग प्रवृति के दो लोगों के पास भेजते हैं।
एक योगी है और दूसरा भोगी। योगी का नाम है कुमारगिरि और भोगी का नाम है बीजगुप्त।



और दोनों के लिए एक निर्देशन भी है।
“पर एक बात याद रखना। जो बात अध्ययन से नहीं जानी जा सकती है, उसको अनुभव से जानने का प्रयत्न करने के लिए ही मैं तुम दोनों को संसार में भेज रहा हूँ। पर इस अनुभव में तुम स्वयं ही न बह जाओ, इसका ध्यान रखना पड़ेगा। संसार की लहरों की वास्तविक गति में तुम दोनों बहोगे। उस समय यह ध्यान रखना पड़ेगा कि कहीं डूब न जाओ।”


      कुमार गिरी और बीज गुप्त के मध्य एक नृतकी चित्रलेखा का प्रवेश होता है। और दोनो के लिए वह एक पहली है और दोनों शिष्य भी उसे समझने में समर्थन है। 
बहुत से संन्यासी औरत से दूर रहते है। चित्र लिखा ने उन्हें कहा- जो मनुष्य स्त्री से भय खाता है, वह या तो अयोग्य है, या कायर है। अयोग्य और कायर दोनों ही व्यक्ति अपूर्ण हैं।”
        उपन्यास का यही पात्र चित्र उपन्यास को गति प्रदान करता है। वह नृतकी होकर भी जिस शास्त्रार्थ का प्रयोग करती है उससे सब चकित रह जाये हैं।
      कुमारगिरी और बीज गुप्त के लिए जो रास्ते सही होते हैं वह अन्य के लिए सही नहीं होते। यहीं दोनों शिष्य असमंजस में होते हैं।- प्रत्येक व्यक्ति अपने सिद्धान्तों को निर्धारित करता है तथा उन पर विश्वास भी करता है। प्रत्येक मनुष्य अपने को ठीक मार्ग पर समझता है और उसके मतानुसार दूसरे सिद्धान्त पर विश्वास करनेवाला व्यक्ति गलत मार्ग पर है।”
- पाप और पुण्य क्या है?

- व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है?
- “स्त्री क्या है, और सौन्दर्य क्या है ? भगवान् ने इन चीजों की रचना क्यों की है ?”
- साधना और वासना क्या है?
- जय और पराजय क्या है?
 जैसे शाश्वत प्रश्नों के उत्तर 'चित्रलेखा' में दिये गये हैं। उपन्यास बहुत से विचारों का वाहक है।
मुझे उपन्यास रुचिकर लगा। मेरे लिए यह एक नया विषय था। ऐसे उपन्यास हमारी वैचारिक क्षमता को परिपक्व करते हैं।

उपन्यास में मूल कथा के अतिरिक्त और बहुत से विषयों पर चर्चा समाहित है जो पाठक वर्ग को रास्ता दिखाने में सक्षम है। नये विचार, नयी संभावनाएं उपस्थिति हैं।
जैसे धर्म के विषय पर आये चाणक्य के विचार देखें।
- मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि धर्म समाज द्वारा निर्मित है। धर्म के नीतिशास्त्र को जन्म नहीं दिया है, वरन् इसके विपरीत नीतिशास्त्र ने धर्म को जन्म दिया है। समाज को जीवित रखने के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों की ही नीतिशास्त्र कहते हैं, और इस नीतिशास्त्र का आधार तक है। धर्म का आधार विश्वास है और विश्वास के बन्धन से प्रत्येक मनुष्य को बाँधकर उससे अपने नियमों का पालन कराना ही समाज के लिए हितकर है। इसीलिए ऐसी भी परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जब धर्म के विरुद्ध चलना समाज के लिए कल्याणकारक हो जाता है और धीरे-धीरे धर्म का रूप बदल जाता है।

ईश्वर और के विषय पर विचार भी पठनीय है-
 मैंने यह कहा था कि हमारा और तुम्हारा ईश्वर, जिसकी हम पूजा करते हैं, कल्पनाजनित चीज है और समाज द्वारा निर्मित है। उसके, भिन्न-भिन्न रूप हैं।
अन्तरात्मा के प्रति विचार देखें-
- हृदय में समाज के नियमों के प्रति अन्धविश्वास और पूर्ण श्रद्धा को ही अन्तरात्मा कहते हैं। समाज से पृथक् उसका कोई अस्तित्व नहीं है !”


साहित्य उपन्यास की एक बड़ी विशेषता उसके संवाद होते हैं। संवाद भी ऐसे जो मनुष्य को प्रेरणा दें और सुक्ति की तरह होते हैं।
प्रस्तुत उपन्यास में बहुत सी ऐसी पंक्तियाँ/ कथन है जो उपन्यास की श्रेष्ठता में श्रीवृद्धि करते हैं।
- व्यक्तित्व की उत्कृष्टता किसी भी बात को काटने में नहीं होती, उसे सिद्ध करने में होती है; बिगाड़ने में नहीं होती, बनाने में होती है।

- कि मनुष्य स्वतन्त्र विचारवाला प्राणी होते हुए भी परिस्थितियों का दास है।
- अपनी भूल को स्वीकार करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।
- मनुष्य अनुभव प्राप्त नहीं करता, परिस्थितियाँ मनुष्य को अनुभव प्राप्त कराती हैं।
- मनुष्य वही श्रेष्ठ है, जो अपनी कमजोरियों को जानकर उनको दूर करने का उपाय कर सके।
- ईश्वर के तीन गुण हैं-सत्, चित् और आनन्द ! तीनों ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं।
- अपराध कर्म में होता है, विचार में नहीं। विचार कर्म का साधन-मात्र है।


प्रस्तुत उपन्यास पाप- पुण्य के साथ-साथ जय- पराजय, साधना- वासना जैसे विषयों पर चर्चा करती है। यह कृति हमारी बहुत सी धारणाओं को खण्डन करती है और मानसिक परिपक्वता प्रदान करने के साथ-साथ हमें नये दृष्टिकोण से बात को समझने के अवसर प्रदान करती है।
यह एक पठनीय रचना है।

उपन्यास- चित्रलेखा
लेखक- भगवतीचरण वर्मा


अमेजन‌ लिंक- चित्रलेखा- भगवतीचरण वर्मा

1 comment:

  1. बहुत ही अच्छी समीक्षा. मैं इसी से मिलती-जुलती कहानी वाली एक किताब ढूंढ रहा था. शायद ये वही है. पढ़कर देखता हूँ. इस तरह की लेखन शैली की किताबें पढ़ने से भारतीय संस्कृति की प्राचीन झलक देखने को मिलती है. पढ़ते-पढ़ते पाठक खो कर कब पुराने समय में पहुंच जाता है, पता ही नहीं चलता. ये इन किताबों की एक विशिष्टता है. चाहे वो आचार्य चतुरसेन की किताबें हों या नरेंद्र कोहली की.

    ReplyDelete