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Wednesday 11 March 2020

275. जय सोमनाथ- कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुंशी

सोमनाथ मंदिर पर महमूद गजनवी के आक्रमण की कथा।
जय सोमनाथ- कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुंशी, उपन्यास

'जय सोमनाथ' साहित्य जगत की एक चर्चित रचना है। इसका जिक्र अक्सर पाठकवर्ग में होता रहता है। जब विद्यालय के पुस्तकालय में यह उपन्यास दृष्टि में आया तो सहज ही उठा लिया और जब पढने बैठा तो इस उपन्यास की कहानी में डूबता चला गया। उपन्यास का कथानक इतना सुसंगठित है की मैं एक बहाव की तरह बहता चला गया।
         उपन्यास की कहानी महमूद गजनवी के सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण को आधार बना कर लिखी गयी है। लेखक महोदय लिखते हैं- लेकिन इस कथा में मेरा उद्देश्य सुल्तान महमूद के आक्रमण का चित्रण करना नहीं है, वरण गुजरात द्वारा किये गये प्रतिरोध का वर्णन करना है।
        हां वास्तव में यह उपन्यास तात्कालिक राजाओं के युद्ध कौशल, वीरता, संगठन और भीषण परिस्थितियों से जूझते हुए वीरों की शौर्यगाथा है। एक ऐसी गाथा जो कहीं मन को द्रवित करती है तो कहीं हृदय में जोश पैदा करती है। कहीं तात्कालिक समाज की परिस्थितियाँ सोचने को विवश करती है तो कहीं धर्म -अधर्म पर विचारने का अवसर प्रदान करती है।

उपन्यास का आरम्भ सोमनाथ मंदिर से होता है। जहां पाटण के राजा भीमदेव अपनें मत्री विमल के साथ उपस्थित हैं।
संवत् 1082 की कार्तिक सुदी एकादशी थी। जैसे लोहा चुम्बक से खिंचता चला आता है वैसे ही यात्री सोमनाथ के परम पूज्य शिवालय की ओर आकर्षित होकर खिंचे चले आ रहे थे। (पृष्ठ-प्रथम)
- वे चले आ रहे थे, हजारों की संख्या में। वे एक ही परम कर्तव्य को सामने रखकर आ रहे थे- देव का दर्शन। और उनके कानों में एक ही पूण्यनाद गूँज रहा था- 'जय सोमनाथ'
गंग सर्वज्ञ, भीमदेव और विमल को सूचना मिलती है की महमदू गजनवी सोमनाथ के लिंग को ध्वस्त करने आ रहा हैैै।

"गजनी का अमीर चढा चला आ रहा है।"
"क्या कहा?"- सर्वज्ञ और भीमदेव दोनों बोल उठे।
" हां, उसने थानेश्वर को लूट लिया है और कन्नौज को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। क्या आपको पता है कि वह अब भगवान सोमनाथ के थाम को नष्ट करने के लिए आ रहा है? एक क्षण भी खोने का समय नहीं है। जाओ, मेरे बापू और गूर्जर भूमि को संभालो।"(
पृष्ठ-41)




       गंग सर्वज्ञ महमूद गजनवी को रोकने का दायित्व सौंपते हैं भीमदेव को। भीम देव अपने कौशल- चातुर्य से इस गजनवी का सामना करता है। दूसरी तरफ सज्जन सिंह को दायित्व देते है की वे अन्य राजाओं को आक्रमण की सूचना दे।
      उपन्यास में यामिनुद्दौला महमूद निजामुद्दीन कासिम महमूद के सोमनाथ आक्रमण के अतिरिक्त भी बहुत कुछ वर्णित है। तात्कालिक धार्मिक परिस्थितियों का बहुत अच्छा चित्रण उपन्यास में मिलता है। प्रभास में भी सोमनाथ और त्रिपुरी सुंदरी के भगत उपस्थित हैं। वहीं कापालिक और वामाचारी भी हैं‌ जो मनुष्य के रक्त से देवताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं। वहीं चौला जैसी पवित्र कन्याएं हैं जो भगवान शिव को अपना सर्वस्व मानती हैं।
      लेकिन भारतीय धर्म हर बात को धर्म की दृष्टि से देखता था जिसके परिणाम अच्छे न थे।
युद्ध का उत्तर युद्ध से ही दिया जाता है धर्म से नहीं। लेकिन धर्म के अनुयायी इस बात को न समझ सके।

"जब तक इस लिंग का तेज जीवित है तब तक त्रिपुरार ही कुछ नहीं कर सका तो मनुष्य की क्या बिसात है?"
"लेकिन उसने ऐसे कितने ही तोड़ डाले। कहा जाता है वह देव मूर्तियों का काल है।' विमल मंत्री ने कहा।
यहीं उत्तर गंग सर्वज्ञ का शिष्य शिवराशि देता है।
"तो यह अमीर क्यों आया है?"
"इस पहेली को सुलझाने के लिए मैं कई दिन से यह तपश्चर्या कर रहा हूँ... ।"- शिवराशि ने कहा।
लेकिन ऐसा नहीं की सभी ऐसे रहे हों कुछ सत्यनिष्ठ और धर्म के सच्चे अनुयायी भी हैं। जैसे गंगदत्त- ''मेरा पुत्र शस्त्र-विद्या से अपरिचित था, तो भी मैंने उसे बापा के साथ भेजा। जब हम जीते-जी मोक्ष दिलाते हैं तो मरने में साथ क्यों न दें?"(पृष्ठ-125)

उस समय का समाज कितना भीरु था इसका उत्तर 'घोघाबापा का भूत' खण्ड से मिल जाता है।
विदेशी आक्रमण होते रहे और भारतीय राजा युद्ध हारते रहे। उसके पीछे भी बहुत से कारण रहे हैं। जैसे आपसी द्वेष, दुश्मन को कम आंकना, उचित युद्ध नीति न होना और धर्म युद्ध की दुहाई देना।
- जब हमने यहाँ गजनी के अमीर की बार सुनी थी तब यह सोचा था कि उसे चुटकी में मसल दिया जाएगा। वाक्पतिराज ने ऐसा समझा, घोघाबापा ने ऐसा समझा और उनका सर्वनाश हो गया। चौहान बालमदेव ने भी ऐसा ही समझा था, इसलिए वह भी युद्ध में पीस दिया गया। (पृष्ठ-151)
उपन्यास में सबसे श्रेष्ठ रूप से कोई उभर कर आया है तो वह है रेगिस्तान के सम्राट घोघाबापा का परिवार। - महाराज निर्भय रहिए, घोघाबाबा के इक्कीस पुत्र, छियालीस पौत्र और एक सौ तीन प्रपौत्र देव की आज्ञा से रण में डटे हैं। यवन की क्या मजाल जो हमको हटाकर आगे बढे?"(पृष्ठ-63)
       इन्हीं के पुत्र सज्जन सिंह और पौत्र सामंत सिंह के कारनामें उपन्यास की रोचकता बढाने में सक्षम है। सज्जन सिंह जिस तरह से महमूद की सेना को अकेला टक्कर देता है वह और किसी के वश का रोग नहीं। रेगिस्तान में भटकना सज्जन सिंह अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना कर दुश्मन से हो मुकाबला करता है वह अद्वितीय है। सामंत सिंह तो उससे भी एक कदम आगे बढकर साहस का परिचय देता है।

        उपन्यास में सज्जन का रेगिस्तान में भटकने का जो दृश्य रचा गया है वह पाठक को स्तब्ध कर देता है। लेखक ने जिस तरह से रेगिस्तान का वर्णन किया है ऐसा लगता है जैसे सूखा रेत शब्दों मे माध्यम से अंदर तक उतर गया हो। वहीं प्रभास में युद्ध का वर्णन इतना सजीव है की एक-एक दृश्य आखों‌ के सामने घूमता नजर आता है।
     उपन्यास भाषा शैली के स्तर पर सराहनीय है। कुछ संवाद जो पाठक को आकृष्ट करते हैं। उदाहरण देखें
- मनुष्य का भय और मनुष्य की आशा खरगोश के सींग के समान होती है। (पृष्ठ-60)
- 'स्त्री, विप्र और गाय की रक्षा क्षत्रिय नहीं करेगा तो कौन करेगा?"

       एक अच्छे कथानक की यही पहचान होती है की वह घटनाओं को जीवंत रूप दे देता है। यह उपन्यास गुजराती से अनूदित है, पर पढते वक्त ऐसा कहीं भी नाममात्र आभास नहीं होता क्योंकि दोनों भाषाएँ लगभग समान है।
       इस विषय पर जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास 'गजनी का सुल्तान' और 'तूफान फिर आया ' (दो भाग) पढा था वह भी काफी रोचक लगा। इसी विषय पर आचार्य चतुसेन शास्त्री जी ने भी 'सोमनाथ' शीर्षक से एक उपन्यास लिखा है।
        प्रस्तुत उपन्यास महमूद गजवी के आक्रमण, सोमनाथ मंदिर का भव्य चित्रित, साज-शृंगार, नृत्य, धर्म का रूप, समाज- क्षत्रिय वर्ग का चित्रण करने के साथ-साथ अन्य तात्कालिक परिस्थितियों का अच्छा वर्णन करता है। यह रोचक इतिहास और कल्पना के मिश्रण से परिपक्व उपन्यास पठनीय है।

उपन्यास- जय सोमनाथ
(लेखक‌ के‌ मूल गुजराती उपन्यास का हिन्दी अनुवाद)
लेखक- कन्हैयालाल माणिक्य लाल मुंशी
अनुवादक- पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश'
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ- ‌ 326

2 comments:

  1. निस्संदेह पठनीय उपन्यास. इसे भी विशलिस्ट में शामिल कर लिया.

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  2. उपन्यास बढ़िया लग रहा है ढूंढा जा रहा है अगर मिला तो जरूर पढ़ा जायेगा।

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