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Thursday 28 February 2019

175. महाभोज- मनु भण्डारी

लाश पर राजनीति...
महाभोज- मनु भण्डारी, उपन्यास

      मनु भण्डारी कृत 'महाभोज' उपन्यास भारतीय राजनीति पर आधारित एक यथार्थवादी रचना है। उपन्यास इतना खुरदरा है की उसका कथ्य पाठक को बुरी तरह से उस खुरदरेपन का अहसास करवाता है।
                 हमारी राजनीति किस स्तर तक गिरी हुयी है इसका जीवंत उदाहरण है यह उपन्यास।  
                   अगर आपको जीना है तो आप खामोश जिंदगी जी लीजिएगा, आँख, कान और मुँह बंद करके जी सकते हैं। अगर आप खामोश जिंदगी नहीं जी सकते तो आपका हश्र भी वही होगा जो बिसू उर्फ बिसेसर का हुआ।
                      बिसू सरोहा गाँव का एक शिक्षित जवान था। वह अन्याय और अत्याचार का विरोधी था और एक दिन....उसकी लाश सड़क के किनारे पुलिस को पड़ी मिली, शायद इसीलिए लावारिस लाश का ख़याल आ गया। वरना उसके तो माँ भी है, बाप भी। ग़रीब भले ही हों, पर हैं तो। विश्वास नहीं होता था कि वह मरा हुआ पड़ा है। लगता था जैसे चलते-चलते थक गया हो और आराम करने के लिए लेट गया हो। मरे आदमी और सोए आदमी में अंतर ही कितना होता है भला! बस, एक साँस की डोरी! वह टूटी और आदमी गया।
                         उपन्यास का आरम्भ यही से होता है। सरोहा गांव से होता हुआ शहर/मुख्यमन्त्री की राजनीति तक पहुंच जाता है।
                           इसी गांव की एक सीट पर उपचुनाव होना था। राजनेताओं को समय मिल गया बिसू की लाश पर राजनीति करने का।
                           उपन्यास में मुख्यतः दो नेता सामने आते हैं‌। दोनों का चरित्र अलग-अलग है। एक जहाँ शांति की बात करता है तो दूसरा उग्र विचारों का है। लेकिन खतरनाक कौन है यह कहना बहुत मुश्किल है। एक तरफ सुकूल बाबू है तो दूसरी तरफ दा साहब हैं। दोनों के राजनैतिक हित हैं जिसकी भेंट गांव वाले चढते हैं।
                           ऐसा नहीं है की सभी लोग गलत हों कुछ अच्छे भी होते हैं लेकिन निकृष्ट राजनेता और नौकरशाही अच्छे लोगों को अच्छा काम करने भी नहीं देती।
                           कभी सिरोहा गांव के लोगों के घर जला दिये गये, लेकिन न्याय न मिला‌। एक बिसू ही था जो न्याय के लिए संघर्ष करता था एक दिन वह भी शैतानवर्ग की भेंट चढ गया। बिसू के लिए उसका दोस्त बिंदा, उसके संघर्ष को आगे बढाने का प्रयास करता है, सक्सेना जैसे अच्छे पुलिस वाले भी हैं जो बिंदा का साथ देते हैं।
      राजनेताओं के लिए गांव का भी तभी तक महत्व है जब तक चुनाव नहीं हो जाते। न तो इससे पहले इंसाफ मिला और न अब न्याय की उम्मीद है। न्याय के लिए संघर्ष करने वाला तो रहा नहीं, अगर कुछ रहा है तो बेबस गांव वालों की सिसकिया और नेताओं के झूठे आश्वासन।
                            उपन्यास में जो घटनाक्रम है वह एक गांव और शहर के अंदर तक सीमित है लेकिन वह सारे भारत के भ्रष्ट शासन को रेखांकित करता नजर आता है। सिर्फ अपनी सत्ता के लिए लोग किसी को जान से मरवाने में भी परहेज नहीं करते, उनके लिए पुलिस और नौकरशाही तो घर की बात है।
                            'महाभोज' उपन्यास पढते वक्त पाठक एक ऐसे घटनाक्रम में चला जाता है जो इतना संवेदनशील, जहाँ पाठक भ्रष्ट प्रशासन और राजनीति को देखकर दहल उठता है। 
                         
निष्कर्ष-
             प्रस्तुत उपन्यास भारतीय राजनीति का वह काला चेहरा दिखाता है जो बहुत भी भयावह है। हमारे राजनेता किस स्तर तक गिर सकते हैं। यह इस उपन्यास में दर्शाया गया है।‌ 
   यह उपन्यास साहित्य की अनमोल धरोहर है। इसे अवश्य पढें ।

उपन्यास-  महाभोज
लेखिका-  मन्नू भण्डारी
प्रकाशक- राधाकृष्ण पैपरबैक्स
                     

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