अपने हुये पराए- प्यारे लाल आवारा
लम्बे समय से मैं घर नहीं आया था। विद्यालय में कोई अवकाश नहीं था। जुलाई से नया सत्र आरम्भ हुआ और उसके बाद 16 सितंबर को घर के लिए रवाना हुआ। यात्रा के दौरान में अक्सर कोई न कोई किताब पढ लेता हूँ। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ की आने-जाने के दौरान कोई किताब नहीं पढी और इस दौरान घर पर एक किताब पढी वह प्यारे लाल आवारा की 'अपने हुये पराये' हालांकि इस उपन्यास को पूर्व में पढ चुका था। बस समीक्षा की दृष्टि से पुनः पढ लिया।
'अपने हुये पराये' एक सामाजिक उपन्यास है। हां, सामाजिक है पर पूर्णतः पारिवारिक नहीं।
कहानी का आरम्भ पण्डित रामानंद से होता है।मित्र इंद्राज बरोड़ के साथ उपन्यास चर्चा
-भोर हो रही थी और पण्डित रामानंद गंगा किनारे के अपने मनपसंद घाट पर पहुँच गये थे।
आसमान पर बादल थे, इसलिए भोर की रोशनी जमीन तक नहीं पहुँच पा रही थी।
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'माँ गंगे' कहते हुये उन्होंने गंगा जी के जल को अपने माथे और सफेद दाड़ी से लगाया ही था कि 'छपाक' की आवाज हुयी और वे चौंक कर उधर देखने लगे।
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