आखिर क्या था रहस्य के बीच.... भूत-प्रेत या षड्यंत्र
रहस्य के बीच-वेदप्रकाश शर्मा, हाॅरर-थ्रिलर, पठनीय।
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वेदप्रकाश शर्मा मेरे प्रिय उपन्यास लेखकों में से एक हैं। वेदप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास पढने की मेरी शुरुआत 'रहस्य के बीच' उपन्यास से हुयी थी, और अब एक लंबे समय पश्चात यह उपन्यास पुन: पढने को मिला। इस उपन्यास को पढकर आज भी उतना ही रोमांचित हुआ जितना प्रथम बार हुआ था।
यह उपन्यास रहस्य के एक ऐसे जाल में उलझा है जिसमें विजय जैसा जासूस भी उलझ कर रह गया।
उपन्यास की कहानी आरम्भ होती है-
सन् 1955 की 5 जनवरी
पांच जनवरी की कङकङाती हुई सर्द स्याह रात-
गर्जना करते हुए बादल, प्रकोप दिखाते हुए मेघ, चमचमाती हुई बिजली और तीव्र हवा के झक्कङ इस स्याह रात को मौत सी भयंकर बना रहे थे।
बात है श्मशानगढ की-
श्मशानगढ-
एक ऐसी स्टेट जो पूर्णतया अपने नाम के समान गुणी थी, अर्थात् श्मशान से भी अधिक भयानक। वहां रात का आगमन होते ही मानों साक्षात मौत सङक पर नृत्य करती थी। (उपन्यास का प्रथम पृष्ठ, पृष्ठ संख्या-07)
यह कहानी आरम्भ होती है श्मशानगढ से। जहाँ के आत्मा का निवास बताया जाता है।
श्मशानगढ के पूर्व राजा चन्द्रभान सिंह के पुत्र राजीव इस रहस्य के समाधान हेतु जासूस विजय को आमंत्रित करते हैं। लेकिन विजय के हवेली पहुँचते ही कत्ल का वह खेल शुरु होता है जिसे न तो विजय रोक पाता है और न ही उसका शिष्य रहमान( बांग्लादेश का जासूस)।
दोनों का स्वागत भी बहुत गजब तरीके से होता है।
वास्तव में धीरे-धीरे रात की यह नीरवता -यह सन्नाटा- यह निस्तब्धता भंग होती जा रही थी। ऐसा लगता था जैसे कोई खिलखिला रहा है, जोर-जोर से खिलखिला रहा है। वास्तव में वह खिलखिलाहट बङी ही भयानक थी। लगता था कोई मुर्दा झुंझला रहा है। यह खिलखिलाहट सीधे दिल में उतरती चली जाती थी।
उन दोनों के रोंगटे खङे हो गये। (पृष्ठ-26,27)
और वहाँ जो रहमान ने देख वह तो बहुत भयानक था। रहमान जैसा जासूस भी दहल उठा।
उसने देखा-
देखकर भय से पीछे हट गया।
उसके चेहरे के ठीक सामने - सिर्फ एक फुट की दूरी पर-
एक चेहरा उभरा था, एक जिस्म उभरा था।
एक पैंतीस वर्ष की युवती का जिस्म।
वृक्ष पर लटका उलटा जिस्म।
वह कांपकर पीछे हट गया।
यह भयानक आवाजें उसी के मुहँ से निकल रही थी।
बङा ही खौफनाक था यह जिस्म।
युवती का शरीर पेङ पर उलटा लटका हुआ था। लेकिन ...लेकिन सबसे खौफनाक बात यह थी कि उस युवती के धङ और गर्दन के ऊपर का भाग पृथक था- बिलकुल पृथक, हवा में लहराता हुआ- उसके धङ के ऊपर के भाग से लहू बह रहा था- गर्दन से भी लहू टपक रहा था।
उफ!
कितना खतरनाक था इस युवती का हवा में लटका चेहरा। (पृष्ठ-33)
- आखिर वह काला साया किस चक्कर में था?
- वह सफेदपोश कमसिन लङकी कौन थी?
- पीपल के वृक्ष पर नजर आने वाली वह युवती कौन थी?
- वह सफेद चौंगे वाला व्यक्ति कौन था जिसकी लाश अपने स्थान से गायब हो गयी?
- गोल्डन नकाबपोश कौन है?
- क्या ये आत्मा/भूतप्रेत का चक्कर है या किसी का षड्यंत्र?
- आखिर श्मशानगढ में क्या षड्यंत्र रचा जा रहा है?
- कौन लोग हैं इस रहस्य के पीछे?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर तो वेदप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास 'रहस्य के बीच' को पढकर ही जाने जा सकते हैं। और रहस्य भी धूंध की तरह फैला है जिसके आर-पार देखना संभव नहीं है। विजय-रहमान जैसे खतरनाक जासूस भी भाग खङे होते हैं।
-"गुरु, भागो, बिना पैर के मुकाबला नहीं हो सकता "- सहसा रहमान चीखा तथा तेजी के साथ भागा। विजय को भी न जाने क्या सूझा कि वह भी दुम दबाकर वहाँ से भाग लिया। (पृष्ठ-55)
उपन्यास हाॅरर-थ्रिलर है तो इसमें कोई ज्यादा सार्थक संवाद की संभावना नहीं देखी जा सकती, लेकिन यह भी संभव नहीं की उपन्यास में अच्छे कथन न हो।
कुछ अच्छे संवाद पाठक को हमेशा याद रहते।
जैसे-
"प्यार भी दो प्रकार का होता है। एक तो होता है किसी से सच्चा प्यार, दिली प्रेम और दूसरा होता है झूठा यानि किसी के पैसे इत्यादि से प्यार। (पृष्ठ-62)
उपन्यास का कथानक कोई ज्यादा विस्तृत नहीं है। लेकिन घटनाक्रम बहुत तीव्र गति से घटता है। एक के बाद घटनाएं घटित होती चली जाती हैं। पाठक भी इस रहस्य के बीच भटक सा जाता है की आखिर ये सब कैसे हो रहा है। कभी वह आत्मा/भूत प्रेत के अस्तित्व पर विश्वास करता है तो कभी वह इन्हें नकार भी देता है। क्योंकि घटनाएं ही ऐसी घटित होती हैं।
भुतों के अस्तित्व पर विजय रहमान को कहता है। -" तुम बंगालियों की खोपडियों का दिवाला तो निश्चित रूप से पहले ही निकल चुका है जो बीसवीं सदी में भूतों पर विश्वास करते हो।"(पृष्ठ-19)
लेकिन कुछ घटनाएं स्वयं विजय का दिमाग घूमा देती हैं।
तभी विजय गजब की फुर्ती के साथ उछला तथा उसने चुङैल के हवा में उलटे लटके जिस्म पर जंप लगा दी लेकिन आश्चर्य यह था कि वह चुङैल के शरीर के बीच से गुजर गया था दूसरी तरफ जाकर मुँह के बल धरती पर आ गिरा। (पृष्ठ-49)
अब क्या सत्य है और क्या असत्य, क्या इस लौकिक का है और क्या पारलौकिक यह सब तो रहस्य के बीच उपन्यास को पढकर जाना जा सकता है।
निष्कर्ष-
वेदप्रकाश शर्मा जी को सस्पेंश का बादशाह कहा जाता है। उनके उपन्यास होते भी सस्पेंश पर आधारित हैं। पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ यही सोचता चला जाता है की आखिर आगे क्या होगा।
प्रस्तुत उपन्यास का तो नाम ही 'रहस्य के बीच' है तो यह है इसमें जबरदस्त रहस्य होगा। उपन्यास प्रथम पृष्ठ से ही जबरदस्त सस्पेंश पैदा करती है जो अंत तक बना रहता है।
उपन्यास रोचक और पठनीय है। उपन्यास के पृष्ठ कम है इसलिए एक बैठक में आसानी से पढा जा सकता है।
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उपन्यास- रहस्य के बीच
लेखक- वेदप्रकाश शर्मा
प्रकाशक- राजा पाकेट बुक्स- मेरठ
पृष्ठ- 100
मूल्य-15₹ (तात्कालिक)