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Tuesday 19 September 2023

574. साधु, संत और फकीर- बिमल चटर्जी

अत्याचार और बदले की कहानी
साधु, संत और फकीर - बिमल चटर्जी

हिंदी जासूस कथा साहित्य में बहुत से लेखक हुये हैं जिन्होंने बहुत कुछ लिखा है और अपने समय में प्रसिद्धि भी प्राप्त की है।‌ ऐसे ही एक लेखक हुये है बिमल चटर्जी, बिमल चटर्जी ने टैंजा सीरीज लिखी थी, जो काफी प्रसिद्ध रही है।
बिमल चटर्जी का मेरे द्वारा पढा गया यह प्रथम उपन्यास है जो एक बदला प्रधान कथा पर आधारित  एक्शन उपन्यास है।
बिमल चटर्जी उपन्यास साधु संत और फकीर

सेन्ट्रल जेल
वह एक लम्बा तड़ंगा जवान था । लम्बोत्तरा चेहरा, भरी दाढ़ी मुछें, लाल लाल सुर्ख आँखें। सिर के बाल काले किन्तु छोटे छोटे, चेहरा विचित्र सी कठोरता लिए हुए,  हाथ और पैर मजबूत।
     इस समय वह सीखचों के पीछे एक सेल में घुटनों में सिर दिये बैठा था । उस सेल में वह अकेला ही कैदी नहीं था, आठ दस कैदी और उसके इर्द गिर्द, किन्तु उससे कुछ दूर हट कर ही बैठे हुए थे ।
उन सभी कैदियों की विचित्र निगाहें उसी कैदी पर टिकी हुई थी । उनमें से कुछों के चेहरों पर भय, ईर्ष्या व क्रोध के मिले जुले भाव ले रहे थे । सेल में विचित्र सा सन्नाटा फैला हुआ था । यह सन्नाटा शायद उसी कैदी के कारण छाया हुआ था, जो इस समय अजीब सी मुद्रा में घुटनों के मध्य सिर दिए बैठा था ।
      इस कैदी को जेल में आए कुल दस बारह दिन ही हुये थे । लेकिन इन दस बारह दिनों में ही उसके साथी कैदी उसकी भयानकता से अच्छी तरह परिचित हो गये थे । उसके फौलादी हाथों ने उनमें से कईयों के चेहरे बिगाड़ कर रख दिए थे ।
उन कैदियों में से सबसे ज्यादा हालत खराब हुई थी गूंगा दादा  की। जो जेल में भी बेताज का बादशाह माना जाता था। ( उपन्यास के प्रथम पृष्ठ से)
उपन्यास की कहानी का संबंध है लखनपुर गांव से। गांव का प्रधान चन्द्रभान सिंह है। जिसका छोटा सा परिवार है, जिसमें उसकी पत्नी एक पुत्री चंचल और पुत्र साधु सिंह है। साधु सिंह स्वभाव से भी साधु ही है।
साधु सिंह के बचपन का मित्र है फकीरा। दोनों हमजोली और सहपाठी हैं। दोनों के परिवारों में अत्यंत घनिष्ठता है।
एक दिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु साधु सिंह पांच साल के लिए शहर चला जाता है और फकीरा का मन पढने में न होने के कारण वह गांव में ही अपने पिता की खेती में मदद करता है।
   जब पांच साल बाद साधु सिंह घर लौटता है तो पूरे गांव में खुशी का माहौल होता है। लेकिन उस दिन साधु सिंह के पिता चन्द्रभान सिंह को अपनी हवेली पर बुलाते हैं।
शानो शौकत के बेमिसाल नमूना ।
जमींदार प्रताप सिंह की हवेली ।
यह हवेली लखनपुर गाँव से करीब चार मील के फासले पर थी। हवेली की शानो शौकत देखते ही बनती थी। रेलवे स्टेशन से लेकर हवेली तक एक पक्की सड़क जाती थी । इस छोटे से गाँव में एकमात्र यही सड़क थी जो कि तारकोल और कंकड़ों से बनी हुई थी
कारण- साधु सिंह की शिक्षा के किए चौधरी चन्द्रभान ने जमींदार से कर्ज लिया था, जिसे चौधरी चुका नहीं पाता। उसी कर्ज के लिए आज जमींदार प्रताप सिंह ने चन्द्र भान को याद किया।

सुनो चौधरी मुझे मेरा पैसा चाहिए, मैं अब तुम्हें एक दिन की मोहलत नहीं दे सकता, तुम चाहे अब घर बेचो या जमीन मुझे इससे कोई सरोकार नहीं, मुझे मेरा पैसा परसों तक मिल जाना चाहिए वरना मुझे तुम्हारे से पैसा वसूल करने के लिए कोई और प्रबन्ध करना पड़ेगा।

      यहीं से अत्याचारी जमींदार प्रताप सिंह के अत्याचार चन्द्रभान के परिवार पर होने आरम्भ हो जाते हैं। पिता की हत्या और बहन से हुये दुराचार का बदला लेने के लिए साधु सिंह भी हथियार उठा लेता है। जिसका साथ देता है उसका मित्र फकीरा।
   वहीं लखनपुर गांव के क्षेत्र में डाकू बांका का भी अत्याचार होता, इसके अतिरिक्त कुछ और डाकू भी सक्रिय हैं, जिनमें एक डाकू साधु सिंह भी है। स्थानीय पुलिस चौकी का दरोगा हरफूल तो सब कुछ जानते हुये भी चुप रहता है। लेकिन डाकूओं  के अत्याचारों से उस क्षेत्र को मुक्त करवाने के लिए कर्नल विनोद और हमीद वहाँ पहुंचते हैं।
  संत सिंह एक सीधा-सादा लड़का था, जिसके बाप का कत्ल धोखे से डाकू बांका सिंह ने कर दिया। एक दिन संत सिंह साधु सिंह से आ मिलता है और इस तरह 'साधु, संत और फकीर' अत्याचार के विरुद्ध अपना अभियान चलाते हैं।
       प्रस्तुत उपन्यास की कहानी अत्याचार और बदले की कहानी है। एक समय था जब हिंदी फिल्मों में इस तरह की नाटकीय फिल्में अत्यंत प्रचलन‌ में थी, जहां एक दुष्ट प्रवृत्ति का जमींदार (ज्यादातर ठाकुर नाम से संबोधन) किसी गरीब पर अत्याचार करता है और फिर उस परिवार का बेटा अपने परिवार पर हुये अत्याचार का बदला लेता है । फिल्म में एक हीरोइन और सात-आठ गीत होते हैं, लेकिन उपन्यास में ऐसा कुछ नहीं है।
  उपन्यास का आरम्भ जेल से होता है, जहाँ गूंगा दादा का दबदबा है। जेल में पहुंचा एक नौजवान गूंगा दादा के साथियों की जबरदस्त मारपीट करता है और गूंगा दादा का रौब खत्म कर देता है।
लेकिन उसके पश्चात वह नौजवान बिलकुल खामोश रहता है। और वह नौजवान है साधु सिंह। शेष कथानक फ्लैश बैक में चलता है। आखिर साधु सिंह कैसे डाकू बना और उसे फांसी की सजा क्यों हुयी।
उपन्यास में कर्नल विनोद और हमीद की भूमिका बहुत ही कम है और वह भी अनावश्यक प्रतीत होती है। उसकी जगह अगर सामान्य पुलिस को दिखाया जाता तो अच्छा रहता, क्योंकि कर्नल विनोद और हमीद का किया धरा कुछ भी नहीं होता।
   उपन्यास में कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत होता है जैसे कहानी में कुछ घटनाएं नहीं दिखाई नहीं गयी, लेकिन ऐसा है नहीं क्योंकि लेखन उन घटनाओं का आगे संक्षिप्त वर्णन किया है। जैसे संत सिंह का साधु सिंह की कैद से निकलना।
    जमींदार प्रताप सिंह उपन्यास का प्रभावी पात्र है लेकिन लेखक ने उसे स्थान नहीं दिया। प्रताप सिंह की भुमिका समयानुसार बदलती रहती है। वह एक तरफ जमींदार है तो दूसरी तरफ....।
प्रताप सिंह का एक संवाद देखें-
मेरा नाम प्रताप सिंह है जिस से लखनपुर तो क्या है आस पास के तमाम गाँव वाले भी काँपते हैं ।
प्रस्तुत उपन्यास की कहानी एक शिक्षित नौजवान की जिसका परिवार दुष्ट जमींदार की दुष्टता के भेंट चढ जाता है। और फिर वहीं शिक्षित नौजवान अपने परिवार पर हुये अत्याचार का बदला लेता है।
एक्शन प्रधान उपन्यास बिमल चटर्जी के नाम पर एक बार पढा जा सकता है।

उपन्यास-    साधु, संत और फकीर
लेखक-      बिमल चटर्जी
प्रकाशक-   भारती पॉकेट बुक्स, दिल्ली
पृष्ठ-           150
प्रकाशन -   1977
बिमल चटर्जी उपन्यास साधु संत और फकीर

2 comments:

  1. सराहनीय प्रयास..... गुरप्रीत जी.... 👍👍👍👍👍

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  2. रोचक। कई बार ऐसे फिल्मी उपन्यास भी मनोरंजन करते हैं। बिमल चटर्जी का नाम मैंने काफी सुना है लेकिन पढ़ने का मौका नहीं लगा। कभी कुछ उनका लिखा पढ़ने को मिला तो पढूंगा।

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